इससे पूर्व के सूत्र में महर्षि ने बताया कि कैसे तीन प्रकार के कर्मों के फलों के आधार पर तदनुसार इच्छाएं या वासनाएं प्रकट होती हैं। इसी बात पर एक जिज्ञासा उठी कि कैसे इतना सटीक संभव है कि जैसा कर्म होगा उसका वैसा ही फल होगा और फिर वैसी ही मनुष्य के भीतर वासनाएं उठेंगी?
इस प्रश्न या जिज्ञासा का उत्तर देते हुए महर्षि कह रहे हैं कि जब मनुष्य इन तीन कर्मों में से कुछ भी करता है तो करते करते उसे उन उन कर्मों का अभ्यास हो जाता है, फिर वैसी प्रवृति बनने लग जाती है। फिर यह अभ्यास और प्रवृति बार बार मनुष्य द्वारा की जाती है तो इसके सूक्ष्म संस्कार उसकी स्मृति के हिस्सा बन जाते हैं। चूंकि स्मृति संस्कारों से बनती है तो स्मृति और संस्कार में किसी भी प्रकार का कोई भेद नहीं है।
जितने दृढ़ संस्कार होंगे उतनी ही दृढ़ स्मृति होगी इसलिए स्मृति और संस्कार में एकरूपता की बात महर्षि कह रहे हैं।
अब जब पूर्व जन्म में किए गए कर्मों के अनुसार फल मिलेगा अर्थात किसी योनि में जन्म मिलेगा फिर वह जन्म किसी स्थान या जगह पर होगा और साथ में कोई समय भी उस जन्म का होगा तो इन सबमें यदि कोई भेद भी होगा पूर्व जन्म की अपेक्षा से तो स्मृति और संस्कार के एकरूप होने से इसमें कोई फर्क नहीं पड़ेगा ऐसा महर्षि कह रहे हैं।
किसी जाति में जन्म से यहां महर्षि का अर्थ है मनुष्य जाति में या पशु जाति में। कीट पतंगों की जाति में। ऐसे जाति में भी फिर और जाति बनाई जा सकती है। यहां जाति शब्द से प्राणी वर्ग की बात कर रहे हैं न कि आज के समय में प्रचलित जाति ( ब्राह्मण, ठाकुर इत्यादि)।
स्थान से यहां जगह की बात कर रहे हैं। जैसे भारत एक स्थान है विशेष है। अमेरिका एक जगह है। इसलिए आपने देखा होगा कई देशों के नाम के आगे स्थान भी लिख दिया जाता है। जैसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान ( स्थान का स्तान हुआ है, यह अपभ्रंश रूप है)।
और समय का अर्थ तो स्पष्ट है ही। जैसे सन 1920 का एक समय है और आज 2023 का अपना एक समय है।
इसलिए महर्षि कह रहे हैं कि संस्कार से ही स्मृति बनी होने के कारण उनमें एकरूपता है जिसके कारण से चाहे किसी भी जाति में, स्थान विशेष में या समय या काल में जन्म हो जाए कर्मों के संस्कार और स्मृति में अभेद होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है।
अर्थात जैसे पहले गाय, मनुष्य पैदा होते थे, जिस भी जगह पैदा होते थे और जिस भी काल में पैदा होते थे। उनके द्वारा पूर्व जन्म में किए गए कर्मों एवं स्मृति के फल में कोई फर्क नहीं पड़ता है। जैसे पहले उनकी स्मृति और कर्म फल के अनुसार प्रवृति, स्मृति और संस्कार का प्रभाव होता था वैसा ही प्रत्येक वर्तमान स्थिति में होगा।
सूत्र: जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्यं स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात्
संस्कारों में वृत्ति रूप उफान जब आता है
उभरा रूप संस्कारों का यह व्युत्थान कहलाता है
इसके विपरीत निरोध संस्कार दबे चित्त में रहते हैं
ना कुछ हरकत हैं करते, बस चित पड़े रहते हैं
कभी व्युत्थान कभी निरोध भाव में
चित्त डोलता है इन दो नाव में
One query please. 4th word is Vyahitanam or Vyavahitanam.
व्यवहितानाम् । we have corrected in the Sutra also। thanks for highlighting the same
It was a typo error