विवेकज्ञान होने पर साधक के अपने विषय में जानने संबधित सभी प्रश्न समाप्त हो जाते हैं और वह विवेकज्ञान का अनुसरण करता हुआ कैवल्य उन्मुख हो जाता है। यह पूर्व दो सूत्रों में हमने समझा।
मनुष्य का यह जीवन कोई पहला जीवन नहीं है अपितु अनादि प्रवाह से न जाने कितने जन्मों की यह यात्रा चली आ रही है। वर्तमान में जब योगी अपने पूर्व जन्मों के समाधि की यात्रा के संस्कारों एवं वर्तमान जीवन के योग साधना से कैवल्य के इतने पास आ जाता है तब पूर्व के जन्मों के विवेकज्ञान से भिन्न ज्ञान के संस्कार बीच बीच में उदित होने लग जाते हैं।
विवेकज्ञान के बीच बीच में पुराने संस्कारों के कारण योगी को सांसारिक ज्ञान भी होता रहता है। चूंकि अविद्या जनित सभी क्लेशों की स्थिति अत्यंत निर्बल होती है लेकिन पूर्ण रूप से समाप्त नहीं होते हैं।
इसलिए योगी की स्थिति कभी विवेकवान से परिपूर्ण रहती है तो कभी पूर्व संस्कारों के प्रवाह से हिलती डुलती रहती है।
इस स्थिति में योगी को परमपिता का आलंबन लेकर इस स्थिति में विचलित नहीं होना है और यह संस्कारों का प्रवाह आकर के चला जायेगा, ऐसे साक्षी भाव से दृढ़ रहकर उन संस्कारों में किसी भी प्रकार से बहना नहीं होता है। संस्कार आएंगे और अपना प्रभाव दिखाकर चले जायेंगे।
यह भाव रखते हुए किसी भी प्रकार से लिप्त नहीं होना है।
अब जो पूर्व जन्म के संस्कार बीच बीच में आते हैं, उनकी पूर्ण समाप्ति के लिए अलग से कोई पुरुषार्थ करना पड़ेगा? इस प्रश्न का उत्तर महर्षि अगले सूत्र में दे रहे हैं।