प्रस्तुत सूत्र में महर्षि कह रहे हैं कि चित्त कभी तो आत्मा के लिए विषय बन जाता है और कभी बाहर के विषयों को जनाने वाला बन जाता है।
इस प्रकार वह विषयों से एवं आत्मा दोनों से रंगा हुआ होता है।
जब वह बाह्य विषयों से संबद्ध होता है तो अचेतन सा भासता है और जब आत्मा से संपर्क करता है तो चेतन जैसा भी भासने लगता है।
चित्त को एक दर्पण की भांति मान सकते हैं। जितना दर्पण साफ होता है उतना ही साफ प्रतिबिंब बनता है और उतना ही स्पष्ट वह दिखाई देता है।
जब इंद्रियों के माध्यम से बाहर की वस्तुओं के प्रतिबिंब चित्त पर पड़ते हैं तो आत्मा चित्त के साथ जब संपर्क करती है तो उसे चित्त पर पड़े प्रतिबिंब का ज्ञान हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा के स्वरूप का प्रतिबिंब भी जब चित्त पर पड़ता है तब भी आत्मा को उसके स्वरूप का ज्ञान होता है।
अर्थात चाहे बाहर का ज्ञान करना हो या स्वयं आत्मा को भी अपने स्वरूप का अनुभव करना हो उसके लिए साफ अंतःकरण या चित्त होना आवश्यक है।
इसलिए चित्त एक दर्पण की भांति है। चित्त रूपी दर्पण का अपना भी एक स्वरूप है लेकिन जैसा जैसा उसके सामने प्रतिबिंब बनता जायेगा वैसा वो ज्ञान आत्मा को कराता जायेगा।