पूर्वोक्त सूत्र में महर्षि ने बताया कि किस प्रकार वासनाओं के चार मुख्य कारणों को यदि हटा दिया जाए तो अनादि प्रवाह से चली आ रही वासनाओं का भी अभाव किया जा सकता है।
वासनाएं हमारे कर्मों के संस्कार का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो कि हमारे आंतरिक जीवन से संबंध रखती हैं लेकिन क्या भौतिक या सांसारिक जीवन में जो भी पदार्थ या वस्तु हैं, उनके भी यदि मुख्य कारणों का उच्छेद कर दिया जाए तो क्या उन पदार्थों या वस्तुओं का भी नाश हो जाता है? ऐसा प्रश्न किसी ने किया।
ऐसे प्रश्न के उत्तर में महर्षि ने यह सूत्र कहा है।
वे कहते हैं कि पदार्थों या वस्तुओं की जो अपनी मुख्य विशेषता है जिसे शास्त्र की भाषा में धर्म कहा जाता है। पदार्थ या वस्तु को धर्मी कहते हैं। वह धर्म या विशेषता समय के साथ समाप्त नहीं होती है। फर्क इतना पड़ता है कि भूतकाल में वह धर्म या विशेषता होकर फिर नहीं व्यक्त नहीं होता और भविष्य काल में वह पुनः होने की संभावना से युक्त रहता है। बाकी वर्तमान में तो वह अभिव्यक्त रहता ही है।
जैसे कुम्हार आज एक मिट्टी का घड़ा बनाता है तो वह वर्तमान में अभिव्यक्त हो रहा है। लेकिन आज से पूर्व घड़ा नहीं था, केवल मिट्टी थी। यह घड़े का भूतकाल हो गया। अब आगे कुछ सालों बाद यह जो घड़ा बनाया है यह नहीं रहेगा अर्थात टूट जाएगा। तब पुनः मिट्टी शेष रह जायेगी। लेकिन भूतकाल और भविष्य दोनों कालों में मिट्टी शेष अवश्य बचती है जिसमें पुनः घड़े को बनाने का विशेष सामर्थ्य मौजूद रहता है।
अतः महर्षि कह रहे हैं कि कोई भी पदार्थ हो, वह समय (भूतकाल और भविष्य काल) की अपेक्षा से कभी समाप्त नहीं होता है क्योंकि वह अपने गुण रूप कारण से अस्तित्व में रहते हैं अर्थात नष्ट नहीं होते हैं।
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