पूर्वोक्त सूत्र में चेतन तत्त्व पुरुष को चित्त की सभी वृत्तियों का ज्ञाता बताया गया था। क्यों चित्त स्वयं में पड़ रहे वस्तुओं के प्रतिविंब को नहीं जान पाता है इस बात का स्पष्टीकरण महर्षि दे रहे हैं।
चित्त का निर्माण प्रकृति के मूल तत्त्वों से हुआ है और जो कुछ भी प्रकृति के तीन मूल तत्त्वों से बना हुआ होता है वह जड़ पदार्थ कहलाता है। इस सिद्धांत को हमें याद रखना है। इन सभी जड़ पदार्थों की सारी सत्ता प्रकृति के हाथों में होती है। जितने भी जड़ पदार्थ होते हैं वे स्वयं कुछ नहीं कर सकते हैं। जब तक चेतनता का उनसे संपर्क नहीं होता है वे अपने कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकते हैं। दूसरी बात सभी जड़ पदार्थ स्वयं के लिए न होकर पुरुष के भोग एवं अपवर्ग (मुक्ति) के लिए होते हैं। ये जड़ पदार्थों के कुछ मूलभूत सिद्धांत हैं जिन्हें ध्यान में रखना आवश्यक होता है तभी सत्य का निर्धारण संभव हो पाता है।
चित्त भी आत्मा के प्रकाश के संपर्क में आने पर ही इंद्रियों से पदार्थ के साथ संयोग करके आत्मा को ज्ञान का अनुभव कराता है।
महर्षि चित्त के ज्ञानवान नहीं होने के पक्ष में जो कारण दे रहे हैं वह है उसका दृश्य होना। दृश्य का अर्थ है जिसके माध्यम से देखा जाए। यहां चित्त दृश्य है और जो देख रहा है उसे दृष्टा कहते हैं। दृष्टा यहां पर आत्मा है, और आत्मा स्व प्रकाशित है।
इसे एक और उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। जैसे पृथ्वी पर हमें चंद्रमा दिखाई देता है और हमें लगता है कि चंद्रमा अपने प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है। लेकिन वस्तुत: चंद्रमा का अपना कोई प्रकाश नहीं है। उसपर जब सूर्य का प्रकाश पड़ता है तो उस कारण से लगता है जैसे चंद्रमा अपने प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है। इसी प्रकार आत्मा का जब संपर्क चित्त से होता है तब चित्त प्रकाशित होता है और इंद्रियों से संपर्क बनाते हुए वस्तुओं का ज्ञान आत्मा को कराता है।