एषाम्- इन पूर्व जन्म के संचित और बचे हुए संस्कारों का
हानम्- नाश
क्लेशवत्- पूर्व वर्णित अविद्या आदि पञ्च क्लेशों के नाश की तरह ही
उक्तम्- समझना चाहिए
पिछले सूत्र में विवेकज्ञान के बीच बीच में जिन पूर्व जन्म के संस्कारों का आना कहा गया है, उनके नाश का उपाय अब इस सूत्र में महर्षि बता रहे हैं।
पूर्व जन्म के इन संस्कारों के नाश के लिए महर्षि पुनः क्रिया योग के अभ्यास की बात कर रहे हैं। जैसे साधन पाद में अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेष आदि क्लेशों को पहले तनु और बाद में पूर्ण नाश करने के लिए क्रिया योग रूप साधन की बात की गई थी, उसी प्रकार अब इन बचे हुए संस्कारों का नाश भी क्रिया योग से ही करने की बात कर रहे हैं।
क्रिया योग का अर्थ हुआ तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान। इनके विषय में विस्तार से हम साधन पाद में बात कर चुके हैं।
क्रिया योग से इन संस्कारों को पुनः दुर्बल किया जाता है और बार बार के क्रिया योग के अभ्यास से एवं विवेकज्ञान के अभ्यास से इन सभी संस्कारों को दग्धबीज किया जाता है जिससे कि अब ये संस्कार पुनः अंकुरित न हो पाएं।
अतः कैवल्य अभिमुख हुए योगी को अंतिम चरण में अत्यंत सावधानी से अपने सभी संस्कारों के निरोध में प्रयत्नशील होना पड़ता है। चित्त अपने प्रयोजन की पूर्णता की ओर अग्रसर होता है, सारी प्रकृति अपने स्वरूप में लौट रही होती है तो अंतिम बार सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण पूरी कोशिश करते हैं कि वे बने रहें। इसलिए यह एक अंतिम लड़ाई होती है जिसे योगी को पूरी ताकत से लड़ना पड़ता है।
कई बार योगियों की यहां से स्थिति नीचे गिर जाती है और श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार ऐसे योगियों को ही योग भ्रष्ट कहा जाता है अर्थात जो योग की ऊंची स्थिति के बाद पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण योग की स्थिति से नीचे आ गए।