इससे पूर्व का सूत्र और यह 20 वाँ सूत्र परस्पर जुड़े हुए हैं। पूर्व सूत्र में महर्षि कहते हैं कि चित्त स्वयं का ज्ञान नहीं कर सकता है क्योंकि वह स्वयं से प्रकाशित न होकर आत्मा से प्रकाशित होकर कार्य करता है।
अब इसके साथ जोड़कर एक और बात कह रहे हैं कि चित्त एक साथ स्वयं का और वस्तु का ज्ञान भी नहीं कर सकता है।
चित्त के जड़ पदार्थ होने के कारण सभी संभव सिद्धांत हमने पूर्व सूत्र में चर्चा कर चुके हैं। यहां महर्षि चित्त के ऊपर एक चेतन सत्ता की महत्ता यहां सिद्ध कर रहे हैं। क्योंकि यदि हम चित्त को ही ज्ञान करने वाला मान लेते हैं तो अंतिम सत्य तक नहीं पहुंच सकते हैं। यहां महर्षि इन दो सूत्रों से यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कैसे चित्त के ऊपर एक और चेतन सत्ता का अस्तित्व अनिवार्य है।
प्रकृति को स्वयं का ज्ञान नहीं होता है और प्रकृति से निर्मित किसी भी चीज को स्वयं का ज्ञान नहीं होता है। केवल पुरुष या चेतन सत्ता ही है जो स्वयं का ज्ञान भी कर सकती है और प्रकृति का भी ज्ञान कर सकती है। इसमें जो कारण है वह है चेतन तत्त्व का समय के साथ नहीं बदलने का स्वभाव।
यदि आज आपकी आयु 40 वर्ष है तो अभी आप अपने बचपन की घटनाओं का स्मरण कर पाते हैं। इसका कारण यही है कि भीतर जो चेतन तत्त्व है वह कभी बदला नहीं। जिस बचपन में उसने किसी घटना का अनुभव किया था, उसका अनुभव आज भी उसकी स्मृति में है।
इसलिए महर्षि यहां चित्त के ऊपर एक चेतन सत्ता को स्थापित कर रहे हैं और कह रहे हैं, हमें जिससे अपना अस्तित्व जोड़ना है वह चेतन तत्त्व आत्मा है न कि शरीर में स्थित कोई अन्य जड़ पदार्थ। जैसे मन, बुद्धि या चित्त।
क्योंकि अधिकतर मनुष्य मन से अपने को जोड़ लेते हैं या बुद्धि से अपनी पहचान जोड़ लेते हैं जो एक बहुत बड़ा अज्ञान हो जाता है।