इस संसार में अनेक पदार्थ, वस्तु या व्यक्ति हैं। फिर स्थान की दृष्टि से सबकुछ बहुत दूर दूर भी हैं। कोई एक व्यक्ति एक ही समय पर सभी वस्तुओं, पदार्थों या व्यक्तियों के विषय में सबकुछ पता नहीं कर सकता है। अतः हमारे चित्त का यह सामर्थ्य नहीं है कि वह इंद्रियों के माध्यम से सभी पर एक साथ संयोग स्थापित करके सबके विषय में सबकुछ ज्ञान ले। इसलिए वह एक समय में सामने दिखने में आने वाली वस्तु, पदार्थ या व्यक्ति के विषय में ज्ञान कर सकता है। लेकिन उसी क्षण बाकी सबकुछ उसके लिए अज्ञात रहता है।
दूसरा, अब तक चित्त ने जितनी भी वस्तुओं, पदार्थों, व्यक्तियों एवं स्थानों को जाना है या उनका प्रतिबिंब चित्त में बना है उसका ज्ञान भी उसे तभी होता है जब स्मृति पटल पर दुबारा से वह वस्तु का प्रतिबिंब बनकर आता है।
लेकिन महर्षि कह रहे हैं कि चित्त का जो स्वामी है, जिसे चेतन पुरुष कहते हैं उसे सबकुछ का सदा ज्ञान रहता है।
अब तक चित्त पर जो कुछ प्रतिबिंब बने या छपे, पुरुष को उन सबका ज्ञान सदा रहता है। चित्त स्मृति का प्रयोग करके उन पुराने प्रतिविंबों को पुनः पटल पर लाकर उनका ज्ञान चेतन को करा सकता है।
पुरुष, चेतन होने से अपरिणामी है अतः वह सभी कालों में एक जैसा रहता है। उसमें किसी भी प्रकार से कोई परिवर्तन नहीं होते तो जब जब चित्त ने पुरुष को ज्ञान कराया वह सबकुछ पुरुष को ज्ञात रहता है।
चित्त चूंकि जड़ पदार्थ है और परिणामी है, बदलते रहने वाले स्वभाव का है तो वह स्वयं कोई ज्ञान को ग्रहण नहीं कर सकता।
कहने का तात्पर्य है कि आत्मा में ज्ञान सदा रहता है, उसकी अभिव्यक्ति के लिए साधनों की आवश्यकता रहती है। यदि साधन शुद्ध हों तो कभी भी ज्ञान की अभिव्यक्ति हो सकती है। लेकिन तब भी जो ज्ञान की अभिव्यक्ति स्मृति आदि साधनों से होगी वह आत्मा को ही होगी।