महर्षि कह रहे हैं कि चित्त हमारी इंद्रियों के साथ संयोग करके वस्तुओं का ज्ञान चेतन पुरुष को कराता है। जब चित्त आंख के माध्यम से किसी वस्तु से संपर्क साधता है तब चित्त पर इस वस्तु का एक प्रतिबिंब पड़ता है, जिससे वह वस्तु चेतन को ज्ञात हो जाती है। और जिस वस्तु, व्यक्ति या पदार्थ से आंख के माध्यम से संयोग नहीं होता, चाहे कोई भी कारण हो, वह वस्तु चित्त की दृष्टि से अज्ञात रहती है।
लेकिन ऐसा नहीं है कि यदि चित्त का आंख के माध्यम से संयोग नहीं हुआ है तो दूर स्थिति उस वस्तु, व्यक्ति या पदार्थ का कोई अस्तित्व नहीं है। बात सिर्फ इतनी सी है कि उस वस्तु, व्यक्ति या पदार्थ का चित्त के ऊपर प्रतिबिंब न बनने से वह चित्त के लिए अज्ञात रहेगी।
इस सूत्र में महर्षि चित्त का बाहरी पदार्थों के साथ संयोग होकर ज्ञान हो जाने को ज्ञात और संयोग न होकर ज्ञान न होने को अज्ञात कह रहे हैं।