जब योगी क्रिया योग के द्वारा सभी बचे हुए पूर्ण जन्म ने संस्कारों को तनु करता हुआ नाश की तरफ ले जाता है तब केवल सत्व गुण की प्रधानता शेष रह जाती है।
लेकिन जब तब तीनों गुणों से रहित अवस्था नहीं आ जाती हैं तब तक कैवल्य की अवस्था योगी को प्राप्त नहीं हो सकती है।
विवेकख्याति जी इस अवस्था में योगी सब सांसारिक सुख सुविधाओं से विरक्त हो जाता है, यहां तक की योग साधना से प्राप्त सभी विभूतियों को भी वह छोड़ देता है अर्थात उनमें किसी भी प्रकार से राग नहीं रखता है। उसकी तो एकमेव सात्विक इच्छा शेष रहती है कि वह अपने सहज और सरल, शुद्ध स्वरूप कैवल्य को प्राप्त कर ले।
इस अवस्था को ही महर्षि धर्ममेघ समाधि कह रहे हैं। जहां कैवल्य ज्ञान का प्रवाह अखंड रूप से सब इच्छाओं से अबाधित रहता है तब इसी अखंडित प्रवाह या धारा का नाम धर्ममेघ समाधि कहते हैं।
जैसे बादल एक धारा के रूप में बहता है उसी प्रकार से योगी के भीतर जो सच्चा धर्म है वह भी बहने लगता है।
यह संप्रज्ञात समाधि की उत्कृष्ट अवस्था है।