Chapter 4 : Kaivalya Pada
|| 4.29 ||

प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य‌ ‌सर्वथा‌ ‌विवेकख्यातेर्धर्ममेघः‌ ‌समाधिः‌ ‌


पदच्छेद: ‌प्रसंख्याने-अपि-अकुसीदस्य, सर्वथा, विवेकख्याते:-धर्ममेघ:, समाधि:॥


शब्दार्थ / Word Meaning

Hindi

  • प्रसंख्याने- बुद्धि व आत्मा दोनों के पृथक –पृथक स्वरुप ज्ञान होने पर
  • अपि- भी
  • अकुसीदस्य- विवेक ज्ञान से उत्पन्न सिद्धियों में अनासक्त हो जाने पर
  • सर्वथा- पूरी तरह से
  • विवेकख्याते:- विवेकख्याति के प्राप्त होने पर
  • धर्ममेघ:- धर्ममेघ नामक
  • समाधि:- समाधि की प्राप्ति होती है

सूत्रार्थ / Sutra Meaning

Hindi: विवेक ज्ञान से उत्पन्न सिद्धियों से अनासक्त हो जाने पर सर्वथा विवेक ख्याति होने से धर्ममेघ नामक समाधि की प्राप्ति होती है ।

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Yog Sutra 4.29

Explanation/Sutr Vyakhya

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  • Yog Kavya

जब योगी क्रिया योग के द्वारा सभी बचे हुए पूर्ण जन्म ने संस्कारों को तनु करता हुआ नाश की तरफ ले जाता है तब केवल सत्व गुण की प्रधानता शेष रह जाती है।

लेकिन जब तब तीनों गुणों से रहित अवस्था नहीं आ जाती हैं तब तक कैवल्य की अवस्था योगी को प्राप्त नहीं हो सकती है।

विवेकख्याति जी इस अवस्था में योगी सब सांसारिक सुख सुविधाओं से विरक्त हो जाता है, यहां तक की योग साधना से प्राप्त सभी विभूतियों को भी वह छोड़ देता है अर्थात उनमें किसी भी प्रकार से राग नहीं रखता है। उसकी तो एकमेव सात्विक इच्छा शेष रहती है कि वह अपने सहज और सरल, शुद्ध स्वरूप कैवल्य को प्राप्त कर ले।

इस अवस्था को ही महर्षि धर्ममेघ समाधि कह रहे हैं। जहां कैवल्य ज्ञान का प्रवाह अखंड रूप से सब इच्छाओं से अबाधित रहता है तब इसी अखंडित प्रवाह या धारा का नाम धर्ममेघ समाधि कहते हैं।

जैसे बादल एक धारा के रूप में बहता है उसी प्रकार से योगी के भीतर जो सच्चा धर्म है वह भी बहने लगता है।

यह संप्रज्ञात समाधि की उत्कृष्ट अवस्था है।

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