प्रस्तुत सूत्र में महर्षि बता रहे हैं कि योगियों के कर्म पाप और पुण्य के पार होते हैं। अर्थात न तो पुण्य कमाने की दृष्टि से कार्य करते हैं और न ही पाप कर्म ही करते हैं। उनके कर्मों के विषय में सहज गति होती है। वे जो कुछ भी करते हैं वो शुभ ही होता है।
वहीं योगियों से भिन्न लोगों के कर्म विभाग की दृष्टि से तीन प्रकार के होते हैं।
शुक्ल कर्म:
कृष्ण कर्म :
शुक्ल और कृष्ण कर्म:
शुक्ल कर्म: वे सभी कर्म जो शुभ होते हैं, जिन्हें करने से स्वयं एवं समष्टि का कल्याण होता है और कर्ता को पुण्य लाभ होता है। ऐसे कर्म जो समाज की दृष्टि से भी अच्छे होते हैं।
कर्ता में सत्त्व गुण की प्रधानता जब होती है तब वह शुक्ल कर्म करता है।
जीवन में अच्छी संगति, स्वाध्याय, योगाभ्यास अपनाने से व्यक्ति शुभ कर्मों में प्रवृत्त होता हुआ शुक्ल कर्म करता है।
कृष्ण कर्म: ऐसे अशुभ कर्म जिन्हें करने से स्वयं का भी अहित होता है और कहीं कहीं न कहीं समष्टि का भी अकल्याण होता है।
कर्ता में जब सत्त्व गुण दबा होता है और रजस और तमस का प्रभाव हावी होता है तब कर्ता कृष्ण कर्म करने में प्रवृत्त होता है।
जीवन में बुरी संगति होने से, स्वाध्याय की कमी होने से, जीवन में तप नहीं होने से, योगाभ्यास न करने से व्यक्ति कृष्ण कर्म करता है।
शुक्ल – कृष्ण कर्म: जो व्यक्ति पूर्ण रूप से योग में प्रतिष्ठित नहीं हुआ होता है उसके कर्म कभी भी एक तरफा नहीं होते हैं। अर्थात केवल शुक्ल कर्म या केवल पाप या कृष्ण कर्म नहीं होते हैं। उसके जीवन में मिश्रित कर्म होते हैं। कभी वह पुण्य कर्म करता है तो कभी वह पाप कर्म करता है। इस प्रकार जब वह कभी पुण्य कर्म और कभी पाप कर्म करता है तो इसे ही महर्षि पतंजलि शुक्ल – कृष्ण कर्म कह रहे हैं।
व्यक्ति में कभी सत्त्व गुण, तो कभी रजस या तमस गुण के घटते बढ़ते प्रभाव से वह मिश्रित कर्म करता है।
लेकिन जो योगी होता है वह इन तीन गुणों के पार जाकर, गुणातीत होकर कर्म करता हैं जहां उसे पाप और पुण्य कुछ भी नहीं छूता है।
अतः हम सबको गुणातीत होकर कर्म करने का अभ्यास करना चाहिए ।
सूत्र: कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्
योगी कैसे कर्म है करता?
क्या वह उनके फल है भरता?
नहीं! पाप – पुण्य से अछूता योगी
जिस भी कर्म को छूता योगी
सब निष्काम कर्म की श्रेणी में आता
योगी, पाप – पुण्य से मुक्त हो जाता
जो भी करे वह तो निर्लिप्त ही रहता
निमित्त मात्र हूं यह भाव है भरता
अशुक्ल – अकृष्ण कर्म इसे कहा है
तब योगी का मलिन चित्त ढहा है
योगी से अन्यों की गति क्या होती?
कर्म करने में उनकी मति क्या होती?
तीन प्रकार के कर्मों के भोगी
उनसे इनकी गति क्या होगी?
पुण्य फल जो दें वे शुक्ल कहलाते
पाप फले तो कर्म अकृष्ण कहलाते
पाप – पुण्य फल दोनों से सने जो होते
अशुक्ल और अकृष्ण से बने वो होते