चित्त के उपादान कारण के रूप में अस्मिता या अहंकार की बात करते हुए, चित्त एक ही प्रकार का होता है यह स्पष्ट करके के बाद महर्षि एक नई बात कह रहे हैं कि जो चित्त ध्यान के अभ्यास से निर्मित होता है वह सब प्रकार की वासनाओं से रहित होता है। ऐसे ध्यान से निर्मित चित्त का आश्रय कर्म संस्कार नहीं होते अपितु इसका आधार दग्धबीजता होती है।
जैसे कैवल्य पाद के प्रथम सूत्र में 5 प्रकार से सिद्धियां प्राप्त करने की बात कही गई है। इनके अभ्यास से चित्त पांच प्रकार से बनता है लेकिन प्रथम 4 अभ्यासों जन्म, औषधि, मंत्र और तप से चित्त में कर्म के संस्कार बने रहते हैं लेकिन समाधि से निर्मित जो चित्त होता है वह कर्मों एवं उनके जनित संस्कारों से रहित होता है।
ध्यान जनित चित्त होने पर सभी कर्म दग्घबीज हो जाते हैं। जैसे किसी बीज को भूनने के बाद उसमें किसी भी प्रकार का अंकुरण संभव नहीं होता है उसी प्रकार ऐसे भूने हुए या दग्धबीज़ चित्त में किसी भी प्रकार के संस्कार उदित नहीं होते हैं
सूत्र: तत्र ध्यानजमनाशयम्
ध्यान जनित वह चित्त श्रेष्ठ है
सर्वोत्तम वह चित्त ज्येष्ठ है
कैवल्य का एक आधार वही है
दग्धबीज हुआ निर्विकार वही है
कर्म संस्कार से रहित हुआ वह
गुणातीत भाव के सहित हुआ वह
समाधि का साधन है बनता
योगी का सच्चा धन है बनता