Chapter 4 : Kaivalya Pada
|| 4.22 ||

चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाकारापत्तौ‌ ‌स्वबुद्धिसंवेदनम्‌ ‌


पदच्छेद: चिते: अप्रतिसंक्रमाया:‌ तदाकार-आपत्तौ, स्वबुद्धि-संवेदनम् ॥


शब्दार्थ / Word Meaning

Hindi

  • चिते:- पुरुष अथवा जीवात्मा
  • अप्रतिसंक्रमाया:- सङ्ग से रहित है या निर्लिप्त रहकर
  • तदाकार - विषययुक्त चित्त से
  • आपत्तौ - तादात्म्य होने से
  • स्वबुद्धि- पुरुष को स्वयं के चित्त का
  • संवेदनम् - ज्ञान हो जाता है

सूत्रार्थ / Sutra Meaning

Hindi: पुरुष का विषयों के साथ सीधा सम्बन्ध न होकर के , विषयों के साथ तादात्म्य हुए चित्त का ज्ञान होता है

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Yog Sutra 4.22

Explanation/Sutr Vyakhya

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अब अंततः महर्षि आत्मा और चित्त के विषय में स्पष्ट सिद्धांत प्रतिपादित कर रहे हैं कि आत्मा सब प्रकार की क्रियाओं एवं संग (आसक्ति) से रहित है और वह जब किसी विषय को ग्रहण किए हुए चित्त के साथ जुड़ती है तो आत्मा को अपने ज्ञान का अनुभव हो जाता है या अपनी बुद्धि का ज्ञान हो जाता है।

 

 

महर्षि यह स्पष्ट मानते हैं कि आत्मा न तो विषय के साथ एकाकार होती है और न ही विषय के ज्ञान के साथ बदलती है। यह हमारा चित्त और मन और इंद्रियां हैं जो विषय के साथ बदल जाती हैं लेकिन आत्मा के न बदलने वाले स्वभाव के कारण वह एकरस रहती है, निर्लिप्त रहती है।

 

जैसे स्फटिक मणि के सामने जब कोई रंगीन वस्तु रख देते हैं तो मणि भी उसी रंग की दिखाई देने लग जाती है लेकिन तत्त्व से मणि का कलर सदा के लिए वैसा नहीं रहता है। वह तो स्वच्छ और साफ और पारदर्शी ही रहती है। जैसे ही आप वस्तु को हटा लेते हैं तो पुनः अपने स्वरूप में आ जाती है।

 

इसी प्रकार आत्मा भी चित्त से संपर्क बनाते ही अपनी बुद्धि का ज्ञान करती है।

 

समाधि में जब साधक किसी भी प्रकार से चित्त के साथ संपर्क में नहीं होता है तो आत्मा स्वयं से स्वयं का अनुभव करती है। वहां पर चित की सहायता की आवश्यकता नहीं रह जाती है।

 

इसी सिद्धांत को महर्षि यहां पर प्रतिपादित कर रहे हैं।

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