अब अंततः महर्षि आत्मा और चित्त के विषय में स्पष्ट सिद्धांत प्रतिपादित कर रहे हैं कि आत्मा सब प्रकार की क्रियाओं एवं संग (आसक्ति) से रहित है और वह जब किसी विषय को ग्रहण किए हुए चित्त के साथ जुड़ती है तो आत्मा को अपने ज्ञान का अनुभव हो जाता है या अपनी बुद्धि का ज्ञान हो जाता है।
महर्षि यह स्पष्ट मानते हैं कि आत्मा न तो विषय के साथ एकाकार होती है और न ही विषय के ज्ञान के साथ बदलती है। यह हमारा चित्त और मन और इंद्रियां हैं जो विषय के साथ बदल जाती हैं लेकिन आत्मा के न बदलने वाले स्वभाव के कारण वह एकरस रहती है, निर्लिप्त रहती है।
जैसे स्फटिक मणि के सामने जब कोई रंगीन वस्तु रख देते हैं तो मणि भी उसी रंग की दिखाई देने लग जाती है लेकिन तत्त्व से मणि का कलर सदा के लिए वैसा नहीं रहता है। वह तो स्वच्छ और साफ और पारदर्शी ही रहती है। जैसे ही आप वस्तु को हटा लेते हैं तो पुनः अपने स्वरूप में आ जाती है।
इसी प्रकार आत्मा भी चित्त से संपर्क बनाते ही अपनी बुद्धि का ज्ञान करती है।
समाधि में जब साधक किसी भी प्रकार से चित्त के साथ संपर्क में नहीं होता है तो आत्मा स्वयं से स्वयं का अनुभव करती है। वहां पर चित की सहायता की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
इसी सिद्धांत को महर्षि यहां पर प्रतिपादित कर रहे हैं।