योगी को जब संप्रज्ञात समाधि के सर्वोच्च स्थिति धर्ममेघ समाधि की प्राप्ति हो जाती है तब उसके फलस्वरूप सभी क्लेशों एवं कर्मों ( सकाम) की निवृति हो जाती है और जो भी आवरण और अशुद्धियां योगी के ज्ञान को अभी तक ढके हुए होते हैं, वे आवरण एवं अशुद्धियां भी हट जाते हैं, जिसके कारण योगी में अनंत ज्ञान प्रकट हो जाता है। यह ज्ञान इतना असीमित होता है कि इस सम्पूर्ण अस्तित्व में उसके लिए फिर जानने योग्य बहुत कम ही बचता है।
इस सूत्र को ठीक से समझें तो इसमें योग दर्शन का सारा सार समझ में आने लग जाता है। जब तक हम सामान्य जीवन जीते हैं अर्थात एक योगी का जीवन नहीं जी रहे होते हैं तब हमारी बुद्धि पर बहुत सारे आवरण पड़े हुए होते हैं, अनेक बाह्य और आंतरिक अशुद्धियां हमारे जीवन में होती हैं, क्लेशों और कामनाओं से हमारा पूरा जीवन विषमय होता है। हमारी इंद्रियां बहिर्मुखी होकर जो कुछ देखती, सुनती, चखती, सूंघती और स्पर्श करती हैं वह सबकुछ चित्त के माध्यम से आत्मा के अनुभव में आते रहता है, जिसके कारण से नाना प्रकार के संस्कारों से चित्त दूषित होता रहता है। ग्लानि, कुंठा, निराशा, हताशा और बेहोशी में जीवन कटुमय बनता जाता है। शास्त्र की भाषा में कहें तो प्रकृति और पुरुष का संयोग सब प्रकार के दुखों का मूल कारण बन जाता है। इसी संयोग को मल या अशुद्धि के रूप में कहा जा रहा है। इन्हीं आवरणों, क्लेशों, सकाम कर्मों, अशुद्धियों से पार जाने का नाम ही योग साधना है। यही है समस्या ग्रस्त और समाधान युक्त जीवन के बीच का अंतर। इसी अंतर को ठीक ठीक समझकर हमें समस्या से समाधान की यात्रा करनी है।
यहां महर्षि ने ज्ञान की असीमित प्राप्ति और जानने योग्य को अल्प बताया है। इसके अलग अलग अर्थ निकाले जाते हैं।
एक, अनंत ज्ञान की प्राप्ति हो जाती हैं और जानने योग्य कम पड़ जाता है। अर्थात योगी सर्वज्ञ हो जाता है।
दूसरा, योगी अनंत को जानने में समर्थ हो जाता है, बाकी जो बाहर संसार में जानने योग्य था वह बहुत अल्प ही है और उसे जानना उतना आवश्यक भी नहीं है क्योंकि जिसने स्वयं को जान लिया और परमात्मा को जान लिया फिर उसका बाहर की चीजों को जानना या नहीं जानना यह कोई महत्व नहीं रखता है।
दूसरा वाला अर्थ अधिक न्यायसंगत है क्योंकि आत्मा सर्वज्ञ तो नहीं हो सकती है। सर्वज्ञ तो केवल परमात्मा हो सकता है। इसलिए आत्मा से अतिरिक्त जो परमात्मा जानता है वह ज्ञान अल्प है। यह अर्थ उचित लगता है।