पूर्व के दो सूत्रों में महर्षि ने ऋतम्भरा प्रज्ञा के विषय में विस्तृत रूप से बताया। ऋतम्भरा प्रज्ञा का स्वरूप क्या है और इसके सामान्य रूप से क्या लाभ योगी को प्राप्त होते हैं, इन विषयों पर चर्चा की।
अब प्रस्तुत सूत्र के माध्यम से समाधिलाभ हेतु ऋतम्भरा प्रज्ञा किस प्रकार सहयोगी होती है उसके विषय में बता रहे हैं।
ऋतम्भरा प्रज्ञा के उदय होने पर योगी के भीतर अदम्य साहस और आत्मबल आ जाता है। योगी के भीतर ऐसे संस्कार जन्म लेने लग जाते हैं जो योगी को आत्मअनुशासन की ओर ले जाते हैं और संचित बुरे संस्कारों को क्रियात्मक रूप में आने से रोकने लग जाते हैं। बुरे संस्कारों, आदतों या योग की बाधाओं का पहले सहज प्रवाह था वह बाधित होने लग जाता है। योगी के भीतर आत्मशक्ति का जागरण होने लग जाता है और सत्व को प्रबलता से वह दृष्टा भाव में प्रतिष्ठित होकर बलपूर्वक क्लिष्ट वृत्तियों, बुरी आदतों, दोषों या यूं कहें बुरे संस्कारों को रोकने या तिरोहित करने में सक्षम हो जाता है। यहां से उसके जीवन में असली लड़ाई प्रांरम्भ हो जाती है और वह बुरे संस्कारों पर विजय पाना प्रांरम्भ कर देता है।
ऋतम्भरा प्रज्ञा से पूरित होने के बाद, समझ और साहस के बल पर योगी बुरे संस्कारों को खत्म कर देता है और केवल ऋतम्भरा प्रज्ञा से युक्त रहता है। स्वतः स्फूर्त सत्त्व चेतना से विचरण करता है।
सूत्र: तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी
जैसे जैसे ऋतंभरा विकसित होती
दृढ़ संस्कारों से परिलक्षित होती
रुक जाते अशुभ संस्कार सभी
खो जाते बुरे आधार सभी
शुभ संस्कारों का प्रवाह है बहता
तब योगी गहरा भाव है भरता
साधना में निमग्न हो जाता है
योग मार्ग में संलग्न हो जाता है
I can’t see the Hindi interpretation of the Sutras
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