जिन योगियों का चित्त अर्थात अंतःकरण राग मुक्त हो गया है ऐसे योगियों के चित्त का आश्रय लेने से, उनके चित्त में एकाग्रता बनाने से भी साधक का चित्त निर्मल एवं शांत हो जाता है।
हम जिस भाव से युक्त होकर, जिस वीतराग महापुरुष के द्वंद्वातीत, इच्छारहित, सहज एवं सरल चित्त का भाव आश्रय लेकर अभ्यास करते हैं, हम भी उसी वीतराग भाव से आप्लावित होने लगते हैं।
हम जैसे विचार करते हैं वैसे ही बनने लग जाते हैं। जइस वस्तु, विचार या व्यक्ति की महिमा गाते हुए उसपर चिंतन करते हैं उस वस्तु, विचार या व्यक्ति की महिमा से हम भी भरने लग जाते हैं। इसी मूल धारणा का सहारा इस सूत्र में लिया गया है।
कैसे लें वीतराग चित्त का आश्रय: साधक अपनी सुविधानुसार किसी भी आसन चाहे पद्मासन हो या सुखासन या अन्य कोई, उसमें अच्छे से स्थित होकर कोमलता से आंखे बंद करके किसी वीतराग महापुरुष के इच्छारहित चित्त पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करें।
एक मिनट तक मध्यम गति से श्वास को भीतर लें और छोड़ें। इस प्रकार से मन आंशिक शांत होकर प्रारंभिक रूप से एकाग्र हो जाएगा और साधक वीतराग चित्त पर सहजता से मन को टिका सकता है।
एक बार में ही वीतराग महापुरुष जैसे महर्षि पतंजलि, महर्षि कपिल, महर्षि कणाद, महर्षि जैमिनी, महर्षि वेदव्यास, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम, योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण, आदि योगी शिव अथवा ऐसे गुरु जिनके ऊपर आपको विश्वास हो कि वे वीतराग हो चुकें हैं; ऐसे वीतराग चित्त की महिमा का मन ही मन में स्पष्टता से मनन कर लें और प्रसन्नता का अनुभव करें।
तत्पश्चात ऐसे वीतराग चित्त में अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा, प्रयास को लगा दें और अपने को तल्लीन कर दें।
एक बात का ध्यान रखना है कि इसमें अधिक विचार नहीं करना है अपितु वीतराग महापुरुष के चित्त को ही अनुभव करने का प्रयास करना है। साधक को इस स्थिति तक पहुँचना होगा जैसे वे वीतराग महापुरुष के चित्त वाला ही हो गया है और उसे वह सब अनुभव हो रहा है जैसा उन वीतराग महापुरुष को महसूस होता हो। यह इस साधना का मुख्य एवं मूल बिंदु है।
जब साधक इस प्रकार से वीतराग चित्त को अनुभव करने लग जायेगा तो स्वतः ही उसका भी चित्त तदाकार हो शांत एवं निर्मलता को प्राप्त हो जाएगा। क्योंकि जिसके सभी द्वंद्व समाप्त हो चुके हैं, जिसकी इच्छा और अनिच्छा समाप्त हो गई है, जो राग और द्वेष से पार सहज और सरल हो चुका है, जो किसी भी दौड़ का हिस्सा नहीं है, जो एकत्व एवं समत्व को प्राप्त हो चुका है वह मन की निर्मलता एवं प्रशांतता को सदा पाया हुआ है और ऐसे चित्त का आश्रय उस साधक को भी इसी प्रकार की अनुभूति से भर देता है।
ऐसा नहीं है कि इस विधि को अपनाने के बाद साधक का चित्त सदा के लिए निर्मल एवं शांत हो जाता है, साधक जब जब इस विधि का प्रयोग करता है तब तब उसका मन शांत एवं निर्मल हो जाता है। शांत एवं निर्मल हुए मन से योग मार्ग पर आगे बढ़ने में सहायता मिलती है। यह बार बार करने वाला अभ्यास है। इसके बार के अभ्यास से फिर साधक का चित्त सहज ही प्रसन्न एवं शांत रहने लगता है।
राग से रहित महापुरुषों, योगियों के चित्त में मन को एकाग्र करनेवाला चित्त भी साधक के मन को शांत, स्थिर एवं निर्मल बनाता है।
ऐसे योगी एवं महापुरुष, जीवन के सभी क्षेत्रों में हमारे आदर्श जिन्होंने पूर्व में योग विद्या एवं अध्यात्म विद्या से अपने अंतःकरण को निर्मल, शुद्ध एवं राग रहित कर लिया है, उनके चित्त में मन को अखंडरूपेण लगाए रखने से भी साधक के मन में शांत प्रवृत्ति उत्पन्न होने लगती है जिससे उसका मन भी शांत एवं निर्मल हो जाता है।
हमारा मस्तिष्क जैसा सोचता है, हृदय जैसी भावना रखता है और बुद्धि जैसी तर्कपूर्ण एवं श्रद्धा के साथ विचार करती है; इन सब में हमारा लगाव या जुड़ाव होता जाता है। योगियों का रागरहित हुआ चित्त भी एक सात्विक आलंबन है जिस पर यदि इच्छापूर्वक मन एकाग्र किया जाए तो जैसा एक रागरहित हुए योगी के चित्त में प्रशांतता होती है; उसी की तरंग साधक भी महसूस करने लग जाता है।
आप भी एक प्रयोग करके इसे अनुभव कर सकते हैं। परम पिता परमेश्वर के प्रति, अपने गुरुजनों के प्रति हमारी अनन्य श्रद्धा होती है। प्रत्यक्ष रूप से हमारे गुरु का हमारे जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। एक समर्थ गुरु अपने शिष्यों के जीवन को प्रतिपल मार्गदर्शित करते हैं क्योंकि उनका सम्पूर्ण जीवन ही शिष्य के लिए दर्शन बन जाता है। एक ओर जहाँ गुरु का आचरण भी शिष्य को उसके जीवन में मार्गदर्शक का कार्य करता है वहीं अपने वचनों से, अपने आदेशों 3वैन निदेशों से भी शिष्य को आगे बढ़ने में सहायता करते हैं।
” परमपिता परमेश्वर या मेरे समर्थ गुरु एवं गुरुसत्ता, ऋषि सत्ता मेरे माध्यम से जी रहे हैं। मेरे माध्यम से मेरा परमात्मा, मेरा गुरु जी रहा है। इसलिए मैं एक पल को भी कोई ऐसा कार्य, भावना या विचार न करूं जिससे मेरे परमात्मा और मेरे गुरु के जीने के ढंग पर कालिख पड़े। ” इस प्रकार की भावना से आवेशित चित्त से जब हम अपने अपने समर्थ एवं योगी गुरु, स्वयं परमात्मा के चित्त पर मन को एकाग्र ही नहीं अपितु हम वहीं हैं ऐसा मानेंगे तो तत्क्षण हमारा पुराना चित्त खो जायेगा और तत्क्षण हम भी शांति पा जाएंगे।
यह प्रयोग अध्यात्म की दृष्टि से भी अत्यंत लाभकारी है । ऐसा विचार करने मात्र से आपके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आने लग जाएंगे और पाएंगे कि आप उसी समय एक नए इंसान बन गए हैं। गुरु चेतना, ऋषि चेतना एवं ब्रह्म चेतना आपके भीतर प्रकाशित होने लग जायेगी। यदि जीवन को जीना ही जो तो उसे अपना मानकर नहीं अपितु परमात्मा का मानकर जियेंगे तो सदैव तनावमुक्त, प्रसन्नचित्त, पुरुषार्थी जीवन जियेंगे।
इस पूरे संसार में परमात्मा एवं समर्थ गुरु सत्ता, ऋषि सत्ता के अतिरिक्त किसका ऐसा चित्त होगा जिस पर मन एकाग्र किया जा सकता हो अर्थात केवल परमात्मा एवं समर्थ गुरु सत्ता का चित्त ही ऐसा चित्त है, अन्य नहीं।
आज के समय में हम ऐसे ही समर्थ गुरु परम पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज जी के आश्रय में पल और बढ़ रहे हैं जिनके चित्त में मन को लगाकर हम भी अपने मन को शांत और निर्मल बना सकते हैं। पूज्य श्री की अपनी निजी अभिलाषा परमात्मा की अभिलाषा में मिल गई है इसलिए उनका स्वयं का कोई राग और द्वेष नहीं है। ऐसे रागरहित एवं द्वेष रहित चित्त पर भी साधक सुगमता से मन को एकाग्र कर मन को स्थिर कर सकता है।
सूत्र: वीतरागविषयं वा चित्तम्
मन की चंचलता सब जाने हैं
निज अनुभव सब पहचाने हैं
इक क्षण यहां तो दूजा दूर कहीं
खाली खाली सा भरपूर कहीं
कभी ठहराव नहीं, कभी कोई भाव नहीं
स्थिरता चंचल मन का स्वभाव नहीं
राग रहित महापुरुषों के संग
रंग जाए जब मन उनके रंग
तब भी मन खुश हो जाता है
उतने समय तक प्रसन्नता पाता है