Chapter 1 : Samadhi Pada
|| 1.2 ||

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः


पदच्छेद: योग: , चित्त , वृत्ति , निरोधः ॥


शब्दार्थ / Word Meaning

  • चित्त - चित्त अर्थात् अन्त:करण (की)
  • वृत्ति - वृत्तियों (का)
  • निरोध: - निरोध (सर्वथा रुक जाना)
  • योग: - योग है ।

सूत्रार्थ / Sutra Meaning

Hindi: चित्त अर्थात् अन्त:करण की वृत्तियों का निरोध सर्वथा रुक जाना योग है ।

Sanskrit: मनसः अर्थात् अन्तःकरणस्य प्रवृत्तिः सम्पूर्णतया निवारयितुं भवति योगः ।

English: Yoga is restraining the mind-stuff(Chitta) from taking various forms(Vrittis).

French: Le yoga empêche les choses mentales (Chitta) de prendre diverses formes (Vrittis).

German: Yoga ist das Zur-Ruhe-Bringen der Gedanken im Geist.

Audio

Yog Sutra 1.2
Explanation 1.2

Explanation/Sutr Vyakhya

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  • Yog Kavya

योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:

पुरातन काल में गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत शास्त्र अध्ययन किया जाता था। शास्त्र अध्ययन से पहले विद्यार्थी या शिष्य को प्रारम्भिक शिक्षा दी जाती थी जिससे कि उन्हें पढ़ाया जा रहा विषय भली भांति समझ में आ जाये। अध्ययन गुरु और शिष्यों के बीच एक प्रकार के संवाद से होकर गुजरता था। शिष्य बीच बीच में जिज्ञासा करते थे और गुरु जहां जहां आवश्यक होता था वहां उन उन जिज्ञासाओं को भी उत्तरित करते जाते थे और इस प्रकार पूरे शिक्षण में एक सामंजस्य बना रहता था। योग दर्शन का पहला सूत्र “अथ योगनुशासनम” पढ़ते ही सहज जिज्ञासा होती है कि योग क्या है? “अब योग के अनुसाशन को प्रारम्भ करते हैं ” इस वाक्य से यह जिज्ञासा मन में सहज उठती है कि “योग” किसे कह रहे हैं? तब महर्षि पतंजलि ने योग की परिभाषा समझाते हुए शिष्यों को कहा-चित्त की वृत्तियों का रुक जाना योग है। यह सम्पूर्ण, संक्षिप्त और सारगर्भित परिभाषा है। योग को संपूर्णता से समझने के लिए आपको चित्त क्या होता है! वृत्ति क्या होती है? निरोध शब्द से यहां क्या मतलब है! यह सब समझे बिना योग का मूल एवं वास्तविक अर्थ नहीं समझा जा सकता है।

आईये सबसे पहले जानते हैं कि चित्त क्या होता है-सरल अर्थों में कहें तो चित्त का अर्थ होता है जहां हमारे विचार जन्मते हैं, बनते हैं और जमे रहते हैं संस्कारों के रूप में। चित्त एक प्रकार की भूमि है जहां विचार जन्मते हैं और यह चित्त रूपी भूमि भी पांच प्रकार की होती है।

  • 1.क्षिप्त
  • 2. विक्षिप्त
  • 3. मूढ़
  • 4.एकाग्र एवं
  • 5. निरुद्ध

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि योग केवल चित्त की एकाग्र एवं निरुद्ध अवस्था में ही संभव है।

अब समझते हैं वृत्ति क्या है-वृत्ति एकवचन न होकर बहुवचन में प्रयोग होता है, इसका अर्थ है वृत्ति एक नहीं अपितु एक से अधिक होती हैं। चूंकि आगे के सूत्रों में महर्षि पतंजलि ने स्वयं वृत्तियों के विषय में चर्चा की है इसलिए अभी इतना ही समझें कि हमारे भीतर उठने वाली विचार रूपी तरंगों या मन के क्रियाकलाप को जो कि पांच प्रकार से विभाजित है उसे वृत्तियाँ कहते हैं।

अब सूत्र का अंतिम एवं महत्वपूर्ण भाग आता “निरोध”। इसे ठीक ठीक समझे बिना योग कभी भी समझ में नहीं आ सकता। केवल निरोध शब्द ठीक से नहीं समझा गया इसलिए योग नहीं समझा गया।

संस्कृत में प्रत्यय और उपसर्गों का बहुत महत्व है क्योंकि ये जब किसी शब्द के पीछे और आगे लगते हैं तो अत्यंत बलपूर्वक उस शब्द का अर्थ बिल्कुल बदल देते हैं, वास्तव में इनका केवल अर्थ बदल देने का ही प्रयोजन होता है। अब संस्कृत में 22 उपसर्ग होते हैं और प्रत्येक उपसर्ग यदि एक ही शब्द में लगाया जाए तो उसी शब्द के भिन्न भिन्न अर्थ हो जाते हैं। महर्षि पतंजलि योग दर्शन के रचयिता के साथ साथ एक महान व्याकरणाचार्य भी थे और यदि उन्होंने रुध धातु के साथ यदि नि उपसर्ग जोड़ा है तो यह निष्प्रयोजन नहीं हो सकता है और योग के संबंध में तो बिल्कुल भी नहीं। जहाँ एक ओर सबसे जटिल शब्द की परिभाषा की जा रही हो वहां सामान्य अर्थ में उपसर्ग का प्रयोग नहीं हो सकता है। बहुतों ने निरोध का शाब्दिक अर्थ किया है रोक देना अर्थात चित्त की वृत्तियों को रोक देना योग कहलाता है। यदि रोकने का प्रयत्न अभी भी बचा है तो योग अभी भी पूर्ण रूप से घटा नहीं परिभाषा पूर्ण नहीं हो पाएगी। एक ऐसी स्थिति जब वृत्तियाँ अपने आप रुक जाए तब योग घटित होता है। लेकिन यहां समझने की यह आवश्यकता है कि यह स्थिति बिना प्रयत्न के नहीं आएगी, यह समझना अत्यंत कठिन होता है जब तक कि आप प्रायोगिक रूप से योग विषय में प्रवेश नहीं कर लेते। प्रयत्न जब सहज प्रयत्न में बदलता है तब धीरे धीरे वह चित्त को निरोध अर्थात स्वयं रुक जाने की स्थिति में ले जाता है, फिर बिना प्रयत्न के भान, अहंकार के, कर्तृत्व के भाव से मुक्त हुआ योगाभ्यासी निरुद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इसी स्थिति को महर्षि पतंजलि ने योग कहा है और योग को ही समाधान कहा है।

Yogashchitvrittinirodh:

(Yoga is cessation of the distractions of mind)

(In ancient times study of shastra was done under guru pupil tradition. Prior to study of Shastras the pupil was taught fundamental education so that he could very well understand the subject. The learning happened through a dialogue between the guru and the pupil where a pupil would have queries and the guru would answer those queries as and when required and a balance would be maintained throughout the learning process. On studying the first sutra of Yoga darshan ‘Atha Yogaanushasnam’ one wants to know ‘What is Yoga?’ The sentence “Now let us begin the Discipline of Yoga” gives rise to the query ‘what is yoga?’ Maharshi Patanjali defines Yoga as stilling the fluctuations of mind. This is complete, brief and meaningful definition. To understand Yoga in entirety one must know what is mind, vritti and nirudh. The original and the actual meaning of Yoga cannot be understood without understanding this.

Let us first know what is mind- in simple words mind refers to the land where our thoughts are born, formed and remain firm as sacraments. This mind land is of five types.

  • 1. Kshipt- restless state
  • 2. Vikshipt- distracted state
  • 3. Mudha-confused state
  • 4. Ekagra-one-pointed state
  • 5. Niruddh- restrained state

It is important to note here that Yoga is possible only in one mindedness and restrained state of mind.

Now let us understand fluctuations of mind. Vritti is used as plural instead of singular because fluctuation is not one but many. Since Maharshi Patanjali has talked about fluctuations in the following sutras, so at this point it is enough to realize that waves of ideas growing inside us or the activities of mind are fluctuations which are divided into five categories.

Now comes the last and important part which is nirudh. Without proper understanding of nirudh (restriction) Yoga cannot be understood.

Prefixes and suffixes are important in Sanskrit because when they are added before or after a word, they forcefully change its meaning completely. Actually heir purpose is to change the meaning. There are 22 prefixes in Sanskrit and if all 22 are added before the same word then the same word will have different meanings. Maharshi Patanjali was an accomplished grammarian also alongside the being the author of Yoga Darshan. If he has added ‘ni’ pre fix before ‘rudh’ metal then it is not without any reason and certainly not in context to Yoga. When on one hand the most difficult word is being defined then in ordinary meaning prefix cannot be used. The literal meaning of nirudh given by many is ‘to stop’. ‘Yoga is stopping the fluctuations of mind’. If you are short of efforts to completely stop the fluctuations of mind then Yoga has not happened. And the definition will remain incomplete. Yoga happens in a situation where mind stops fluctuating on its own. Here it is important to understand that Yoga happens only when the fluctuations stop completely, but that cannot happen without putting in efforts. It is difficult to understand. Unless you practically enter Yoga subject and until your efforts become normal then gradually it brings mind to a condition where it stops fluctuating on its own. Then without realizing efforts, free from arrogance and sense of duty the practitioner of Yoga reaches the stage of controlling mind. This stage is called Yoga by Maharshi Patanjali.

coming soon..
coming soon..
coming soon..

सूत्र: योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः

 

वृत्ति रहित जब चित्त साधक का हो जाता है

परम अवस्था वह मानव की, वही योग कहलाता है।

30 thoughts on “1.2”

  1. Swami Shailendra Saraswati says:

    अति उत्तम प्रयास है। इसके लिए योगदान करने वाले सब को बहुत बहुत बधाई। इस वेबसाइट में प्रतिदिन बहुत तेजी से विकास हो रहा है। छोटी मोटी त्रुटियों को इंगित करने में पाठकों का सहयोग अपेक्षित है। उदाहरण के लिए, 1.ऑडियो के सामने लिखा हुआ सूत्र संख्या 1.1 ही आ रही है।
    2. लिखित हिंदी एक्सप्लेनेशन में भी प्रथम सूत्र का ही वर्णन दिखाई देता है।

    1. Neeraj Dahiya says:

      Jai Gurudev !! Guruji aapki guidance chahiye !!

    2. admin says:

      Swami ji // Audio correction has been done . Please refresh and recheck.

  2. स्वामी विदेह देव says:

    गुरुजी..जय गुरुदेव। कल रात्रि स्वप्न में आपसे लगभग 1 घण्टे (आभासित) मेरी आपसे योग दर्शन के विषय मेम विस्तृत चर्चा हुई और आज ही ये स्वप्न साकार भी हो गया। आपने स्वप्न में विविध प्रकार से अपना मार्गदर्शन दिया था जिसे मैं प्रातःकाल स्मरण करता रहा। मन में एक कसक थी कि इतना बड़ा कार्य हाथ में ले लिया है और आपसे पूछ भी नहीं पाए लेकिन आपका सरल हृदय और हम सबके प्रति संवेदनाएं सदैव मार्गदर्शन कर रही थी, शायद सूक्ष्मता इस बार स्थूलता पर हावी हो गई थी।

    मैं स्वतः स्फूर्त भीतर से जो अव्यक्त रूप से आ रहा है उसे शब्द देने का प्रयास भर कर रहा हूं, इसलिए मध्य मध्य में आपके सहयोग और मार्गदर्शन के बिना यह महत कार्य अपनी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पायेगा।

    स्वामी विदेह देव

  3. Swami Shailendra Saraswati says:

    स्वामी जी, यह तो आप मेरी इच्छा की पूर्ति कर रहे हैं। इस पुनीत कार्य के लिए बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद।

  4. Neeraj Dahiya says:

    Guru ji French translation of Patanjali Yoga Sutra has been added please check.

    1. स्वामी विदेह देव says:

      This is great news. Now the ancient knowledge will broadly be spread out to the millions.

      Congrats to the entire team for this great move

      1. admin says:

        आपका आशीर्वाद है स्वामी जी !!

  5. Amol says:

    भूल चुके थे राहै अपनी सिखलाने आप आए हैं

  6. NEERAJ GIRI says:

    ॐ, योग से संभव है कि साधक योग से अपनी चित्त में उठ रही वृत्तियों को निरोध कर सके | वह साधन योग है | योग सद्मार्ग की ओर प्रशस्त करता है |

  7. कैलाश जी says:

    इस सूत्र में योग के परिणाम(लाभ) बताया गया है। यहाँ जिज्ञासा व विचार दोनों एक साथ है पूज्य स्वामी जी। यहाँ परिणाम अर्थात समाधि की अवस्था को सूचित कर रहे हैं जहाँ पर चित्त की सभी वृत्तियाँ रूक जाती हैं। बाकी सभी अवस्थाओं में क्लिष्ट या अक्लिष्ट वृत्ति चित्त में बनी रहती है।
    चित्त के सात्विक तरंग अक्लिष्ट वृत्ति चित्त के अंदर बनी रहे मतलब रूकी रहे तथा क्लिष्ट वृत्तियाँ असात्विक तरंगें चित्त के बाहर रुकी रहे।
    पूज्य स्वामी जी आप इसमें मार्गदर्शन करें। 🙏🏼🙏🏼🙏🏼

    1. admin says:

      पूज्य स्वामी जी का उत्तर आपके लिए:

      देखिए एक बात को स्पष्टता से समझ लें कि समाधि की अवस्था में न तो क्लिष्ट विचार अर्थात दुख देने वाले विचार रहेंगे न ही अक्लिष्ट अर्थात सुख देने वाले विचार। वह तो विचारों की परम शून्यता है जहां पुरुष अपने ही स्वरूप में स्थित हो जाता है।

      अब व्यवहार काल में साधक को सर्वथा अक्लिष्ट वृत्तियों अर्थात विचारों का सहारा लेना चाहिए ताकि क्लिष्ट वृत्तियों को अवकाश ही न मिले साधक के जीवन में प्रवेश करने के लिए जिससे उसकी सात्विक गति बढ़ती रहे और अंततः यह स्थिति उसके साधनाकाल में समाधि को उपलब्ध हो।

      सर्व वृत्ति निरोध तो केवल समाधि अवस्था मे संभव है इसलिए व्यवहारकाल में साधक प्रयास करे कि अक्लिष्ट वृत्तियों का ही सहारा ले।

      स्वामी विदेह देव

  8. अन्तिम आर्य says:

    अहा ! अति सुंदर , सरल व स्पष्ट व्याख्या “पूज्य श्री” । अन्य व्याख्याओं के समावेश के साथ-साथ आपके अपने विचार , अनुभव व समझ को जिस प्रकार से यहां सरलता पूर्वक सरल शब्दों में सम्मिलित किया है उससे व्याख्या और अधिक प्रभावी , सहज व प्रभावी हो गयी है। में समझता हूं कि इसका लाभ अब उन सभी साधको को भी मिल पायेगा जो व्याकरणीय/संस्कृत शिक्षा-दीक्षा से अछूते है। अमृत रूपी सुप्त/दुर्लभ ज्ञान को आम-जनमानस तक पहुंचाने हेतु जो प्रयास व पुरषार्थ आपके द्वारा किया गया है उस हेतु हम सभी योगाभ्यासियों की और से आपके श्री चरणो में -कोटि नमन वन्दन।

    ०१. “जिज्ञासा” – : क्या वृतिनिरोध की इस अवस्था को प्राप्त करने हेतु “योग” के अलावा भी अन्य और कोई मॉध्यम है ? और वृतिनिरोध कि यह अवस्था कुछ समय के लिए प्राप्त होती है या हर समय बनी रहती है ?

    1. admin says:

      पूज्य स्वामी जी का उत्तर आपके लिए:
      अंतिम जी, आपकी दूसरी जिज्ञासा का उत्तर पहले दे रहे हैं।
      देखिए एक बात को स्पष्टता से समझ लें कि समाधि की अवस्था में न तो क्लिष्ट विचार अर्थात दुख देने वाले विचार रहेंगे न ही अक्लिष्ट अर्थात सुख देने वाले विचार। वह तो विचारों की परम शून्यता है जहां पुरुष अपने ही स्वरूप में स्थित हो जाता है।

      अब व्यवहार काल में साधक को सर्वथा अक्लिष्ट वृत्तियों अर्थात विचारों का सहारा लेना चाहिए ताकि क्लिष्ट वृत्तियों को अवकाश ही न मिले साधक के जीवन में प्रवेश करने के लिए जिससे उसकी सात्विक गति बढ़ती रहे और अंततः यह स्थिति उसके साधनाकाल में समाधि को उपलब्ध हो।

      सर्व वृत्ति निरोध तो केवल समाधि अवस्था मे संभव है इसलिए व्यवहारकाल में साधक प्रयास करे कि अक्लिष्ट वृत्तियों का ही सहारा ले।

      अब बात आती है कि क्या वृत्ति निरोध के लिए योग के अतिरिक्त कोई और भी माध्यम संभव है? तो मैं इतना ही कहना चाहूंगा यदि कोई और भी माध्यम होगा तो भी उसे “योग” ही कहा जायेगा। इसका अर्थ हुआ कि वृति निरोध जिससे हो वह योग है।
      और जब हम योग शब्द कहते हैं तो यह अष्टांग योग है जिसमें सबकुछ समाहित है।
      यम
      नियम
      आसन
      प्रणायाम
      प्रत्याहार
      धारणा
      ध्यान
      समाधि
      फिर अष्टांग योग के अवांतर भेद, उनके लाभ, उनसे प्राप्त होने वाली विभूतियाँ और फिर अंतिम और सर्वोच्च लक्ष्य कैवल्य यानि कि केवलता का भाव।
      इसलिए कहा भी गया है- योगादेव तु कैवलयं

  9. भागीरथ पुरुषार्थी says:

    पूज्य महाराज श्री
    आपका आभार ज्ञापित करने के लिए मेरे पास शब्द नही है किन शब्दों में आपका आभार ज्ञापित करूं अभी तक योग दर्शन के सम्बंध में नेट पर कोई इस तरह की जानकारी नही है जो व्यवस्थित हो योग दर्शन के प्रति जो जिज्ञासा थी वह पूरी नही होंपा रही थी लेकिन मुझे विश्वास है कि आपने जिस तरह से सुव्यवस्थित तरीके से एक ही जगह पर सूत्र उसका भावार्थ ऑडियो के माध्यम से उच्चारण एवं व्याख्या निःसंदेह योग दर्शन प्रेमी इसका जरूर लाभ उठाएंगे। मैं भी अपनी जिज्ञासा का समाधान प्राप्त कर सकूंगा आपके इस अभिनय प्रयास एवं आपके पुरुषार्थ को कोटि कोटि नमन 💐💐

    1. admin says:

      आभार आपका भागीरथ जी, दैनिक स्वाध्याय के क्रम में आप भी योग दर्शन के स्वाध्याय के साथ अपने जीवन को उच्चता की ओर ले जाएं

  10. शैलेन्द्र कुमार says:

    पूज्य स्वामी जी सादर चरण स्पर्श।
    जिज्ञासा
    चित्त और मन एक है या अलग अलग क्योंकि मन के विषय मे यह पढ़ाया जता है। यह तीन प्रकार का होता है चेतन मन अर्ध चेतन मन अचेतन मन चेतन मन बहुत छोटा होता है उससे थोड़ा सा बड़ा अर्ध चेतन और मन का जो सबसे बड़ा हिस्सा है वह अचेतन मन है जब हम ध्यान की अवस्था में जाते हैं तब उसी अचेतन मन में दमित पुरानी से पुरानी बातें अनायास ही विचारों के माध्यम से सामने आ जाती है उसका स्क्रॉल चलने लगता है तो उससे कैसे बचा जाए।
    स्वामी जी मन और चित्त को समझाये।
    स्वामी जी कब समझा जाये के हमारे चित्त में उठने विचार ( वृत्तियां) निरूद्ध हो गयी क्योंकि क्योंकि निरुद्ध हो जाने का विचार भी तो । अकलिस्टवृत्ति ही है।

  11. रामबली आर्य says:

    ऊँ नमस्ते पूज्य स्वामी जी दण्डवत्
    जिज्ञासा
    समाधि की अवस्था प्राप्त करने के लिये कायसम्पत जरुरी है या नहीं?

  12. खिलेश्वर says:

    स्वामी जी आप सभी की पुरुषार्थ को सत् सत् नमन वंदन प्रणाम करता हूँ ।
    ओउम् श्री गुरूभ्यो नमः खिलेश्वर बेमेतरा छत्तीसगढ़ आज

  13. Dharm prakash says:

    अपने जिस तरह से है पतंजलि योग सूत्र का यहां पर व्याख्या किया है बहुत ही अच्छा लगा हमें ।मैं काफी समय से ढूंढ रहा था ।मैं बहुत खुश हूं मैं आपको दिल से धन्यवाद करता हूं

    1. admin says:

      धरम जी, आप जैसे सुधि पाठक हमें मिल रहे हैं। हमारा प्रयास सार्थक महसूस हो रहा है। आप सबके सहयोग के लिए धन्यवाद

  14. Gem says:

    Thanks for the information.i was anxious to know this .

  15. Narendra Singh Nirwan says:

    Many many thanks for this noble work. Now one common person can get easily the knowledge of Patanjali Yog Sutra and get benefitted .
    Again many many thanks.

  16. खुशी राम says:

    ओम् जी🙏
    बेहद प्रसन्नता हुई योगसूत्र को इस प्रकार एक ही पटल पर पढ़ने देखने और सुनने का आपके पुरुषार्थ से हमें सौभाग्य प्राप्त हो रहा है इसके लिए सभी योग पथ पर चलने वाले अपने जीवन को ईश्वर से युक्त और संसार से मुक्त चाहने वाली सभी जीवात्मा एं आपका आभार व्यक्त करते हैं।
    मुझे केवल एक प्रश्न आपसे कहना है पूछना है कि क्या हम ऑडियो सूत्र को उसकी व्याख्या को एक साथ कलेक्ट कर सकते हैं क्या ऐसी व्यवस्था है इस लिंक पर ताकि हम कभी भी किसी स्टोरीज में एकत्रित करके फिर उसको क्रमवार सभी सूत्रों का श्रवण कर पाए

  17. बृजेश नागर says:

    पतंजलि योगसूत्र पर बहुत ही सुंदर व्याख्या सुलभ हुई
    साधुवाद 🙏🙏

  18. neeraj says:

    apka yah sujhav bahut accha hai, ham prayas karenge ki aisa ham kar sake

  19. Heena says:

    No audio to listen to sutras

  20. Netu ram says:

    जब मुझे प्रश्न करे की समाधि क्या है तो मै exame me kya kya likhi 10 number ka प्रश्न help

  21. मनोज says:

    मैं बस एक जिज्ञासु हूं मेरा क्षेत्र भी विज्ञान है पर अब हमारे धर्मग्रंथों का अध्धयन करने की तीव्र इच्छा उठती है इसलिए ही आज कल सरल भाषा में उपलब्ध प्रमाणिक ग्रंथों की खोज में हूं।
    गोरखपुर प्रेस का योगदर्शन मैंने मंगवाया और कुछ पीडीएफ भी देखे परन्तु सबसे सरल और सामान्य मानव को समझ आ सकने वाली व्याख्या यही मिली।
    जिन्होंने भी ये अदभुत प्रयास किया है उनको बहुत बहुत धन्यवाद 🙏🙏🙏

    1. admin says:

      बहुत धन्यवाद मनोज जी, आपके शब्दों से हमें शक्ति मिलती है। हमारा प्रयास रहेगा कि अन्य ग्रंथों को भी आम जन मानस के लिए सुलभ कर पाएं।

      आप जैसे सुधी पाठक जन हमारी प्रेरणा के स्त्रोत हैं।

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