जब चित्त की वृत्तियों का निरोध नहीं होता है तब जीवात्मा चित्त की वृत्तियों के अनुरुप ही व्यवहार करता है, जैसी चित्त की वृत्ति होती है ,वैसा ही देखता, सुनता, समझता, महसूस करता है। वृत्तियाँ संसार की ओर भी ले लाती हैं और अक्लिष्ट अर्थात सुख देने वाली होने से भीतर की ओर ले जाने में भी सहायक होती हैं। क्षिप्त, मूढ़ और विक्षिप्त, चित्त की ये तीन भूमियाँ साधक को संसारोन्मुख करती हैं।
प्रश्न यह उठता है कि चित्त की पांच भूमियों (क्षिप्त,मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध) में से जब साधक निरुद्ध स्थिति में न होकर क्षिप्त, मूढ़ या विक्षिप्त किसी एक स्थिति में होता है तो जीवात्मा इन वृत्तियों के सदृश क्यों हो जाता है? इसका कुल इतना कारण है कि स्वभाव से ही इंद्रियां बहिर्गामी होती हैं और निरुद्ध एवं एकाग्र भूमि को छोड़कर सभी भूमियों में वृत्तियाँ बाहर की ओर ले जाती हैं। जीवात्मा बाहर का अनुभव बाह्य इंद्रियों के माध्यम से ही कर सकता है इसलिए वह वृत्ति सारूप्य होकर अर्थात वृत्ति जैसे स्वरूप वाला होकर ही अनुभव ले सकता है। चूंकि प्रथम तीनों चित्त-भूमियाँ संसार का ज्ञान कराने में सक्षम हैं और इनकी गति एकाग्र और निरुद्ध दोनों के सर्वथा विपरीत है तो यह कभी भी स्वरूप की ओर न ले जाकर रूप यानि कि संसार की ओर ले जाती है।
योग एकाग्र भूमि से ही प्रारम्भ होकर निरुद्धवस्था में पूर्णता को प्राप्त होता हुआ साथ साथ ही स्वरूप प्रतिष्ठित करता है।
ऐसा नहीं होता है कि जीवात्मा वृत्ति ही हो जाता है बल्कि मणि सदृश भासता है। जैसे मणि पर कोई लाल रंग पड़ जाए तो मणि भी उसी लाल रंग की हो जाती है। ऐसे ही जीवात्मा भी वृत्ति के संपर्क में बाहर अथवा संसार में आकर वृत्ति जैसा ही जो जाता है।
When the modifications of the mind are not controlled then the soul behaves in accordance with the distractions of the mind. It assumes the form of whatever it perceives. It sees, hears, understands and feels according to the distraction of the mind. Fluctuations take the consciousness on a tour of the external world but if the modifications are positive (akalisht vritti) they can help in drawing you internally. The three grounds of the mind: Ksipta (agitated), mudha (listless), and vikhipta (distracted) draw the practitioner towards the world.
The question it raises is that out of five lands of the mind (ksipta, mudha, vikhipta, ekagra (focused/one pointed) and niruddha (absorbed/mastered)) when the practitioner’s mind is not in restrained condition but is in one of the kshipt, mudha or vikshipt condition, then why is the soul considered akin to these vritties.
The only reason for this is that all the senses by nature are outgoing. Except in niruddha and ekagra land, vritties in all other lands take you outwards. The soul can experience outer world through the medium of external senses. So it experiences this by conforming to the fluctuations of the mind. Since the first three lands of the mind are capable of giving worldly knowledge and their direction is just opposite to ekagra and niruddha, so it
always leads you towards worldly temptations instead of self or actual form.
Starting from the land of ekagra, Yoga attains completeness in niruddh state establishes in the self or actual nature.
It does not happen that the soul becomes distracted…..The way a mani (gem) takes on the red colour of the cloth in which it is wrapped, likewise the soul takes on the identity of the fluctuations of mind after coming in contact with it or coming to this world.
सूत्र: वृत्तिसारूप्यम् इतरत्र
व्युत्थान अवस्था में आत्मा वृत्ति स्वरूप हो जाती है
जैसी वृत्ति मनुष्य की होती, वैसा रूप दर्शाती है।
सत्य कहा “पूज्य श्री” क्षिप्त , मुड़ और विक्षिप्त वृत्तियां ठीक उसी तरह है जैसे नदीया का बहता हुआ तेज प्रवाह जो हर किसी वस्तु को अपने मूल से काटकर बहाने/भटकाने को आतुर रहता है , किसी भी वस्तु को वह स्थान विशेष पर ठहरने नही देता तथा निरुद्ध व एकाग्र अवस्था वह किनारा है जहां नदी के तेज प्रवाह में बहती हुई हर वस्तु पहुंचना चाहती है क्योंकि यही वो स्थान/किनारा है जहां पहुंच कर अथवा जहाँ से हम अपने – अपने मूल गंतव्य तक पहुंच सकते है। अन्यथा प्रथम तीन वृति रूपी प्रवाह का तो कहीं कोई अंत ही नही है , यह तो जन्म – जन्मान्तरों तक भटकने का पथ मात्र है। ” हम सभी योगाभ्यासियों को स्वाध्याय व अपने मूल से जुड़ने व जागृति का जो सुअवसर आपके मॉध्यम से प्राप्त हो रहा है उस हेतु एक बार पुनः आपके श्री चरणों में बारम्बार अभिनन्दन ।
०१. “जिज्ञासा” – : प्रथम तीन वृत्तियों ( क्षिप्त , मुड़ व विक्षिप्त ) अथवा राजसिक , तामसिक प्रकृति के प्रभाव में आकर जीवात्मा से जो अनिच्छित अपराध हो जाते है , क्या उन अपराधों के फल को भोगने से पूर्व भी जीवात्मा एकाग्र व निरुद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकती है ? क्या उसे उन अपराधों के फल को भोगने से पूर्व भी पूर्व भी असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति हो सकती है ? योगाभ्यासियों का पथ प्रदर्शन करने की अतिशय कृपा करें।
अतिउत्तम, अति ज्ञान वर्धक, रुचिकर, और गहराई से अध्ययन करने की हार्दिक इच्छा है|
पूज्य स्वामी जी गुरुदेव आपको कोटिशः नमन
हमें भवसागर से उबरने का सही मार्ग बताए
आपका स्वागत है अनिल जी
This is wonderful ❤️
very clearly and beautifully explained. ye mujhe aaj pahli baar clear hua hai.
आभार आपके शब्दों के लिए , ऐसे ही सीखते रहें
बहुत सुविधाप्रद है , यह वैबसाइटके जरिए योगदर्शनका अभ्यास करना 🙏🌹ૐ🌹🙏
आभार आपका, कृपया अधिक से अधिक लोगों तक ऋषिओं के ज्ञान के पहुंचाएं
It’s awesome👏 wonder wonderfull👌👌👌
thanks veena ji
I am blessed to learn these Patanjali sutras. Thank you Guruji.
thank you shruti ji, please keep learning
जीवात्मा की प्रथम तीन व्रत्तीया(क्षीप्त विक्षीप्त , मुढ) बहिरमुखी है और बाकी दोन आंतर्मुखी(एकाग्र, निरुद्ध) मालूम पडती है|
राम जी बिलकुल, योग केवल एकाग्र और निरुद्ध चित्त की स्थिति में ही संभव है | एक तरह से आप इसे अंतर्मुखी अवस्था कह सकते हैं इसलिए अधिक से अधिक हमें अपने चित्त को एकाग्र करनी की दिशा में कार्य करते रहना चाहिए |
स्वामी विदेह देव
इस संसार में इस ज्ञान की धारा को पाकर अमृत पा लिया मानो। अजर अमर ने लीन हो गए।