प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य
शब्दार्थ / Word Meaning
सूत्रार्थ / Sutra Meaning
Hindi: अथवा प्राणवायुको बारम्बार बाहर निकालने और रोकने से भी चित्त स्थिर होता है ।नासिका द्वारा फेफड़ों में स्थित वायु को वेगपूर्वक बाहर फेंकने एवं बाहर ही उसे रोककर रखने से मन की साधनात्मक स्थिति बनती है या एकाग्र स्थिति बनती है।
इस सूत्र में दो शब्द विशेष रूप से कहे गए हैं ।
प्रच्छर्दन: फेफड़ों में रहने वाली प्राणवायु को वेगपूर्वक बाहर फेंकने को प्रच्छर्धन कहते हैं।
विधारण: वेगपूर्वक बाहर की ओर फेंकी प्राणवायु को बाहर ही रोक देने की प्रक्रिया को विधारण कहते हैं।
मन की स्थिति को साधने के लिए ये दो साधन कहे गए हैं। जब कभी भी मन में विक्षोभ हो, मन चंचलता से ग्रसित हो, निराशा, उदासी, किंकर्तव्यविमूढ़ता के पल हों, अकर्मण्यता मन पर छाई हो, आलस्य प्रमाद अपना जाल फेंकता हो तब प्रत्येक मनुष्य को प्राणायाम की इस विधि का उपयोग करके अपनी चेतना को स्थिर करना चाहिए। स्थिर हुई चेतना ही फिर उर्ध्वगामी होकर मनुष्य को प्रज्ञालोक तक लेकर जा सकती है।
प्राणायाम के मुख्यतः तीन भेद कहे गए हैं-
रेचक: फेफड़ों में स्थित प्राणवायु को (श्वास) बाहर ले जाना या तीव्रता से फेंकना रेचक कहलाता है।
पूरक: नासिका छिद्रों से श्वास को भीतर ले जाना योग की भाषा में पूरक कहलाता है।
कुम्भक: श्वास को रोक देना कुम्भक कहलाता है और इसके दो भेद हैं।
बाह्य कुम्भक- बाहर फेंकी गई श्वास को बाहर ही प्रयत्नपूर्वक रोक देना बाह्य कुम्भक कहलाता है।
अन्तः कुम्भक- भीतर की गई श्वास को भीतर प्रयत्नपूर्वक रोक देना अन्तः कुम्भक कहलाता है।
इस सूत्र में प्राणायाम के इन तीन भेदों में से दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं।
रेचक को ही प्रच्छर्दन शब्द से और कुम्भक को विधारण शब्द से कहा है।
आईये इस सूत्र के वैज्ञानिक पक्ष पर कुछ विचार करते हैं। हमारा मन, हमारे प्राणों की गति पर निर्भर करता है और हमारे प्राण हमारे मन की स्थिति पर निर्भर करते हैं। मन और प्राण परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं अतः यह तो निश्चित ही है कि किसी एक पक्ष पर होने वाली गतिविधि अन्य पर प्रभाव अवश्य डालेगी।
गतिविधि यदि प्राण और मन को संतुलित करने की होगी तो दोनों के ऊपर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और यदि गतिविधि या प्रक्रिया विक्षोभ पैदा करने की होगी तो विपरीत एवं नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
जब साधक प्राणों के आयामों में से प्रच्छर्दन एवं विधारण का प्रयोग करता है तो प्राणों के इस प्रकार के स्पंदन से मन भी उसी लय के साथ समाहित होने लगता है। मन भी तीव्रता के साथ हिलोरे लेता है और फिर दृढ़ता के साथ स्थिर हो जाता है। इस तीव्रता में मन सोचना बंद कर देता है जिससे मन की चंचलता, अस्थिरता, सोचना, व्यर्थ की चिंता आदि सबकुछ खत्म हो जाता है और मन अपनी स्थिर अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
यह पूर्णतः वैज्ञानिक बात है कि यदि मन को शांत करना है या उसे स्थिर अवस्था में लाना है तो इस केवल प्राणों में किये गए प्रयोगों से ही सम्भव है अथवा मन के द्वारा ही किये गए कुछ अन्य उपायों से सम्भव है।
मन को जितना हम सोचने के पार ले जा सकें उतना ही मन को स्थिर कर पाएंगे इसीलिए अष्टांग योग का अस्तित्व है। इस प्रकार प्रच्छर्दन एवं विधारण उन उपायों में से एक प्रमुख उपाय है। यह मन को साधने की साधनाओ में से एक प्रमुख उपाय है।
आगे के 5 और सूत्रों में चित्त की स्थिति बनाने या चित्त को एकाग्राभिमुख करने की बात महर्षि करेंगे।
सूत्र: प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य
गहरी लंबी सांस भरी जो
भीतर कुछ देर वह ठहरी जो
तब वेगपूर्वक बाहर उसे छोड़ें
कुछ देर सांस वापस नहीं मोड़ें
जब बात अस्तित्व पर बन आए
मन, प्राण, शरीर विचलित हो जाए
तब वापस एक गहरी सांस भरें
सहज स्थिति का विश्वास भरें
सामर्थ्य अनुसार यह अभ्यास करे जो
श्वास श्वास का विन्यास करे जो
सदा प्रफुल्लित मन का स्वामी
बनता योग मार्ग का पथिक निष्कामी