विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी
शब्दार्थ / Word Meaning
सूत्रार्थ / Sutra Meaning
Hindi: विषयवाली प्रवृत्ति उत्पन्न होकर वह भी मन की स्थिति को बाँधने वाली होती है ।पांच विषयों (रुप,रस,गन्ध, स्पर्श एवं शब्द) वाली उत्पन्न हुई प्रवृत्ति भी मन को एकाग्र एवं स्थिरता प्रदान करने वाली होती है जिससे मन शांत एवं निर्मल हो जाता है।
5 विषयों में से किसी विषय को विशेष रूप से एकाग्रता का विषय बनाया जाता है तब जो प्रकृष्ट वृत्ति उत्पन्न होती है वह मन को शांत, प्रशांत एवं विमल बना देती है। यह स्थिति योग में आरूढ़ होने के लिए अत्यंत आवश्यक है। जैसा कि अनेक स्थानों पर पहले कहा जा चुका है कि योग केवल चित्त की दो ही प्रकार की भूमियों में संभव है-एक एकाग्र भूमि और दूसरा निरुद्ध भूमि।
जब तक साधक को एकाग्र भूमि प्राप्त नहीं होगी वह योग मार्ग ओर आगे कदम नहीं रख सकता है अतः साधक को एकाग्र भूमि प्राप्त कराने के लिए ही यह सब उपाय महर्षि बता रहे हैं।
मन को प्रसन्न, शांत, प्रशांत एवं स्थिरता प्रदान करने के बहुत सारे उपायों में से यह एक उपाय है। महर्षि कहते हैं कि साधक किसी भी एक प्रक्रिया को श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करके अपनी मनःस्थिति को ठीक कर सकता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि- 5 विषयों में से किसे अभ्यास के लिए चुना जाए? क्या अभ्यास के लिए महर्षि ने कोई निश्चित क्रम बताया है?
हम अपनी बुद्धि से यह निर्णय कर सकते हैं कि किस विषय को हम अपने अभ्यास का माध्यम बना सकते हैं।
जब साधक आंख बंद कर, पद्मासन या किसी भी सुखासन में बैठकर विषयों को माध्यम बनाकर अपने मन को शांत करने के उपाय का अनुष्ठान करता है तो सर्वप्रथम शब्द एक ऐसा विषय है आंख बंद करने के बाद भी प्रकृति की सानिध्य में हमें सुनाई देता है। अतः शब्द से प्रांरम्भ करना सर्वोत्तम है।
जब महर्षि ने इन सूत्रों को लिखा होगा तब निश्चित ही चारों ओर प्रकृति ही प्रकृति होगी एवं महर्षि ने इन सूत्रों को प्रकृति के सानिध्य में ही अपनाने की दृष्टि से लिखा होगा। अतः मन की स्थिरता एवं प्रशांतता के लिए ये सब अभ्यास हमें प्रकृत्ति की समीप्यता में ही करने चाहिए।
आंखें बंद कर, सुखासन या पद्मासन में बैठकर हम नदी की कलकल ध्वनि को विषय बनाकर उसे सुनने में तल्लीन हो जाएं। बांकी सभी 4 विषय अर्थात रुप, रस, गन्ध एवं स्पर्श हट जाएं। साधक की समस्त चेतना केवल शब्द सुनने पर इकट्ठी हो जाये, धीरे धीरे केवल नदी का कलरव, कलकल ध्वनि या नाद शेष रह जायेगा यहां तक कि साधक का अपने होने का अनुभव भी तिरोहित जब जो जाता है तो इस उपाय की पूर्णता घटित होती है। जब शब्द विषय ही शेष रह जाता है तो मन में एक ही वृत्ति प्रगाढ़ होकर मन को लयबद्ध कर देती है। जहां द्वैत समाप्त हो जाता है और एकत्व का अनुभव ही शेष रह जाता है। एकाकार होने की यह भावना अप्रतिम सुख देने के साथ साथ मन को एक नए आयाम पर ले जाती है, मन को एक शिखर आरोहण करा देती है। साधक का यह अनुभव उसे अध्यात्म की और अधिक गहराई में ले जाने को आतुर हो जाता है और इसके लिए आवश्यक पुरुषार्थ विशेष करने को भी साहस देता है। साधक के मन में आध्यात्मिक उन्नति की ऐसी उमंग चढ़ती है जिसका कोई पार नहीं।
यह उत्साह, उमंग और दृढ़इच्छाशक्ति बड़ी सात्विक और संयमित होती है। इन क्षणों में साधक अनियंत्रित होकर नहीं अपितु पूर्ण संयमित होकर योग मार्ग पर आरूढ़ हो जाता है।
शब्द को विषय बनाकर जब साधक अभ्यास करता है तो वहां शब्द की नैरंतर्यता होनी चाहिए। यदि शब्द बीच बीच में टूट रहा है, खंडित हो रहा है तो वृत्ति का प्रवाह नहीं बन पाएगा, बार बार एकाग्रता भंग होगी जिससे मन में चंचलता कम होने के बजाय बढ़ने लगे जाएगी।
अतः नदी का अजस्र प्रवाह या सतत चलने वाली ओंकार की ध्वनि ही सर्वश्रेष्ठ है। जितनी भी प्राकृतिक सतत चलने वाली ध्वनियां हैं वही इस उपाय के लिए उपयुक्त हैं।
शब्द के बाद रूप एक ऐसा विषय है जो प्रतिक्षण हमारे अनुभव में आता है। बन्द आंखों से भी रूप एक ऐसा विषय है जो निरंतर दिखता एवं चलता रहता है। मन की इस सहज प्रवृत्ति को यदि ध्यान एवं एकाग्रता का विषय बना लिया जाए तो आसानी से अन्य विषय तिरोहित हो जाते हैं। रूप बिषय को माध्यम बनाकर अभ्यास करने के लिए साधक को किसी बन्द गुफा या बन्द कमरे में जहां किसी भी प्रकार से शब्द न सुनाई दे, वहाँ बैठना चाहिए ताकि केवल रूप विषय पर एकाग्रता बनाई जा सके। जहां शब्द व्यवधान न बने किसी भी तरह। हाँ एकबार जब साधक इसमें निष्णात हो जाता है तब उसके लिए शब्द भी किसी प्रकार का व्यवधान नहीं रह जाता है। लेकिन प्रारंभिक साधकों के लिए यह सावधानी अत्यंत आवश्यक है।
बन्द कमरे या गुफा में पद्मासन या सुखासन में बैठकर शांत चित्त चित्र या भगवान की मूर्ति को अविचल निहारते जाएं। प्रगाढ़ता के साथ देखने भर का अभ्यास करना है जिससे कि वह रूप ही शेष रह जाये। रूप जितना अज्ञात की ओर ले जाने वाला हो उतना ही श्रेष्ठ है, क्योंकि अज्ञात की ओर ले जाना वाला रूप विचार की ओर नहीं लेकर जाता वह शून्य की ओर ले जाता है। अज्ञात के विषय में हमें कुछ पता नहीं होता है इसलिए उस विषय में विचार उत्पन्न न होकर शून्यता महसूस होती है जो मन को शांत एवं निर्मल बना देती है।
इसी प्रकार दिव्य गंध, सात्विक गंध का आलंबन लेकर उस गन्ध विषय में पूर्णतः एकाकार हो जाने से भी मन को निर्मलता एवं प्रशांतता प्राप्त होती है। जब भी हम विषयों को माध्यम बनाकर मन की शांति एवं स्थिरता के लिए साधना या अभ्यास करते हैं तो यह अनिवार्य शर्त है कि हम उस विषय में पूर्णतः तल्लीन हो जाएं, उस विषय के अतिरिक्त हमारे भीतर कुछ भी शेष न बचे ऐसी स्थिति का निर्माण हुए बिना, हम प्रकृष्ट वृत्ति द्वारा मन को एकाग्र एवं शांत नहीं कर सकते हैं।
दिव्य गन्ध या सात्विक गन्ध के लिए आप सुगंधित घूप, किसी पुष्प की सुगंध या सात्विक मिष्ठान या पकवान की गन्ध का सहारा ले सकते हैं। तीक्ष्ण इत्र या ऐसी गन्ध जो मन को उत्तेजित करती हो उसको विषय नहीं बनाना चाहिए।
गन्ध, रस एवं स्पर्श ये विषय ऐसे हैं जिन्हें साधने में विशेष प्रयत्न या अभ्यास करना पड़ता है। मेरी दृष्टि में साधक को शब्द के आश्रय अथवा दिव्य रूप के आश्रय ही यह साधना करनी चाहिए क्योंकि यह सर्वसुलभ एवं सरल विधियों में से एक हैं। समाज में इन दो विधियों का सहारा भी खूब लिया जाता है। अन्य तीन गन्ध, रस एवं स्पर्श का प्रचलन कम रहा है और श्रम साध्य है। जब साधक के पास दो सर्वसुलभ विकल्प उपलब्ध हों तब साधक को इन्हीं दो के ऊपर कार्य करना चाहिए।
रस के माध्यम से यदि कोई अभ्यास करना चाहे तो किसी मन पसंद एवं जो घर में बन सकता है ऐसे मिष्ठान को विषय बनाकर उसके ही रस का स्वाद महसूस करते हुए पूर्णतः उसमें तल्लीन हो जाएं। बांकी सभी विषय निवृत्त हो जाएं; केवल रस विषय ही शेष रह जाये इस प्रकार भी एक वृत्ति शेष रहने से मन की शांत स्थिति एवं स्थिरता प्राप्त हो जाती है।
जो साधक स्पर्श विषय को आधार बनाकर मन को शांत एवं स्थिर करना चाहते हैं वे किसी कोमल वस्त्र, कम्बल आदि के सात्विक स्पर्श को विषय बनाकर उसको अनुभव करने का अभ्यास करें और धीरे धीरे उस स्पर्श में तल्लीन हो जाये जिससे केवल स्पर्श का अनुभव ही शेष रह जाये।
इस प्रकार 5 विषयों को किस प्रकार विषय बनाकर उझसे मन को शांत एवं निर्मल किया जा सकता है उसकी बात यहां पूरी हुई।
स्मरण रहे कि यह उपाय केवल मन को शांत करने, एकाग्रता बनाने एवं मन की स्थिरता के लिए किए जाने चाहिए न कि इन्हें ही अंतिम उपाय मान लिया जाए। योग की उच्चतम साधना के लिए ये उपाय साधन मात्र हैं।
आगे के सूत्रों में मन की प्रशांतता एवं निर्मलता के लिए महर्षि कुछ और उपाय बता रहे हैं।
सूत्र: विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी
वैसे मन की भूमियां पञ्च हैं
पहली तीन तो गुणों का प्रपंच हैं
सत्व, रजस, तमस तीन गुण कहलाते
सब पदार्थ उद्भव इन्हीं से पाते
आपस में ये घुले मिलें जब
क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त रूप खिलें तब
लेकिन योग घटित दो अवस्था में होता
चित्त जब एकाग्र और निरुद्ध स्थिति संजोता
एकाग्र स्थिति जब किसी विषय में होती
रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द में होती
किसी एक भाव में तल्लीन चित्त वह
रूप, रस, या गंध में विलीन चित्त वह
सब ओर से एकाग्र हो जाता है
तब भी मन प्रसन्नता को पाता है।
इस प्रकार उपाय प्रसन्नता के बतलाए हैं
महर्षि ने गूढ़ रहस्य समझाएं हैं।