उस प्रणव अर्थात ॐ का जप, प्रणव शब्द में निहित अर्थ के साथ बार बार भावना के साथ करना चाहिये। अलग अलग मतों में जप के अनेक प्रकार हैं लेकिन मुख्यतः जप को चार भागों में बांटा गया है।
जप चार प्रकार से किया जाता है-
जप में शब्द, शब्द का अर्थ और अर्थ की भावना यह प्रमुखता से आता है।
वाचिक जप- उच्च स्वर में बोलकर जो जप किया जाता है उसे वाचिक जप कहा जाता है । जैसे : ॐ ॐ ॐ इस प्रकार निरन्तर ऊंचे स्वर में बोलना। वाचिक जप से वाणी की सिद्धि भी प्राप्त होती है।
उपांशु जप- थोड़े से ओष्ठ खुलें हों और धीरे धीरे बोलकर जप करना उपांशु जप कहलाता है । जैसे: जब हम जप करें तो केवल हमें ही सुनाई दे दूर बैठे व्यक्तियों को नहीं। उपांशु जप से धीरे धीरे मन एकाग्र होने लगता है और साधक की वृत्तियां बहिर्मुखी से अंतर्मुखी होने लग जाती हैं। उपांशु जप से वाणी में स्थिरता के साथ शरीर में भी स्थैर्य आने लगता है।
मानसिक जप – शांतिपूर्वक आसन में बैठकर, ध्यान मुद्रा लगाकर जब हम मन ही मन जप करते हैं, मन ही मन ओंकार या मंत्र को जपते हैं तो वह मानसिक जप कहलाता है। मनु महाराज के अनुसार विधियज्ञ से यह जप हज़ार गुना उत्तम है ।
अजपाजप – उपरोक्त जपों का जब अच्छी प्रकार, भलीभांति अभ्यास हो जाता है तब बिना प्रयास के भी जप की निरंतरता बनी रहती है उसे अजपाजप कहते हैं। यह अत्यंत स्वाभाविक रूप से होता है। सारे कार्य करते हुए भी यह जप निरन्तर साधक के भीतर अखंड रूप से चलता रहता है और सदैव उसे प्रभु की छत्रछाया में बिठाए रखता है। यह जप की सर्वोत्तम स्थिति है। एक महात्मा ने इस विषय में कहा है कि – राम हमारा जप करे, हम बैठे आराम ।
जप यदि अर्थ पूर्वक नहीं कर रहे हैं तो उसका लाभ नहीं होता है; केवल बोलने की आवृति भर होती है। यदि जप का अर्थ पूर्वक जाप किया जाय लेकिन भावना न हो तो पूर्ण लाभ नहीं मिलता है। आंशिक लाभ तो मिलता है और यह आंशिक लाभ पूर्ण लाभ की ओर साधक को बढ़ाता भी है।
ईश्वर के निज नाम ॐ संस्कृत के अव रक्षणे धातु से निष्पन्न होता है। धातु पाठ में अव रक्षणे के 17 अर्थ बताए गए हैं।
आईये ओंकार के अर्थ को समझते हैं जिससे कि जब हम ईश्वर के नाम का जप करें तो ठीक ठीक अर्थ भावना पूर्वक जप कर पूर्ण लाभ ले सकें।
यहाँ एक बात और समझनी चाहिए कि महर्षि ईश्वर के नाम का जप करने को भी कह रहे हैं।
The chanting of Om, should be done along with keeping the meaning of the word Pranav in mind. There are many different ways of chanting but mainly chanting is divided into four types:
In Japa the main thing is the word, its meaning and a deep feeling for the meaning.
Vaachik Japa: Chanting while concentrating on the sound of the word repeated loudly. For example: Om Om Om – Continuous chanting of the word loudly. By doing so, you gain complete understanding of your voice.
Oopanshu Japa: Chanting Om softly with slightly opened lips is called Oopanshu Japa. When we do this Japa it should be audible to only us not to the people sitting at a distance. By this mind gets concentrated on the word and gradually the meditator turns introvert from extrovert. It brings stability of body alongside stability in voice.
Mental Japa: Peacefully seated, quietly meditating and chanting the word Omkar in mind is called Mental Japa. According to Manu Maharaj this Japa is better than Vidhiyagya.
Ajapajapa: When the above mentioned types of chanting are well practiced then continuity of chanting is effortlessly maintained. It happens naturally. Even while doing something else it continues uninterrupted in the mind of the meditator. This is the highest form of chanting. In this context a great man once said: God does the chanting, while we relax.
If the chanting is not meaningful then it is not beneficial. It is just a frequency of speech. Even if chanting is done meaningfully but without intent then the reward is incomplete. Even though the profit is partial, it leads the meditator towards full profit.
God’s private name Om is derived from Ava Rakshane dhatu (such a protection metal) in Sanskrit. There are 17 meanings of ava rakshane in metal lesson.
Let us understand the meaning of Omkar for chanting the name of God meaningfully to avail the full profit.
Here we should also understand that Maharshi is asking us to chant God’s name.
सूत्र: तज्जपस्तदर्थभावनम्
चार प्रकार के जप हैं बतलाए
वाचिक, उपांशु ये दो कहलाए
दो अन्य मानसिक और अजपाजप
वाणी योगी की सिद्ध होती तब
कैसे ईश्वर का नाम हैं लेते?
कैसे हैं बनते हम ईश्वर चहेते?
प्रणव शब्द का अर्थ है गहरा
जो साधक उस भाव में ठहरा
अर्थपूर्वक जब वह नाम है जपता
वाणी के तप से जब है तपता
सब गूढ़ ज्ञान वह पाता है
भव सागर से तर जाता है
प्रणव शब्द का अर्थ सुनो अब
मन ही मन उसका अर्थ गुनो तब
प्रणव जिसे हम ॐ भी कहते
जिसके जप से सब अशुभ हैं ढहते
ॐ ही प्रथम ध्वनि है, ॐ ही ब्रह्मांड का सार
ॐ ही पहला स्पंदन, ॐ ही अंतिम आधार
ॐ ही पिता है सबका, है ॐ ही पालनहार
ॐ आदि नाम है और ॐ ही सबका विस्तार
ॐ ही रक्षक है जग का, ॐ ही करता संहार
ॐ ही शरण है सबका, ॐ ही एक शेष विचार
इसलिए अर्थ भाव से जप जो करता
उसका हर बंधन हर अशुभ बिखरता
बहुत सुंदर प्रयास है, परन्तु व्यास भाष्य के बना योग दर्शन अधूरा है