Chapter 1 : Samadhi Pada
|| 1.48 ||

ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा


पदच्छेद: ऋतम्भरा , तत्र , प्रज्ञा ॥


शब्दार्थ / Word Meaning

Hindi

  • तत्र - उस (अध्यात्म-प्रसाद से)
  • प्रज्ञा - बुद्धि
  • ऋतम्भरा - ऋतम्भरा होती है ।

English

  • rtanbhara - filled with higher truth
  • tatr - in that
  • prajna - wisdom, knowledge.

सूत्रार्थ / Sutra Meaning

Hindi: उस अध्यात्म-प्रसाद से बुद्धि ऋतम्भरा होती है ।

Sanskrit: 

English: In that samadhi, knowledge is called "filled with the truth".

French/; Dans ce samadhi, la connaissance s'appelle "remplie de vérité

German: Dann wird das Bewusstsein erfüllt von Erkenntnissen, die der Realität entsprechen..

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Yog Sutra 1.48
Explanation 1.48
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Explanation/Sutr Vyakhya

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  • Yog Kavya

अध्यात्म प्रसाद की स्थिति प्राप्त होने पर एक ऐसी प्रज्ञा उत्पन्न होती है जो केवल सत्य ज्ञान को ही धारण करती है एवं विपरीत या मिथ्या ज्ञान को कभी भी स्वीकार नहीं करती।

 

इस प्रकार साधक की बुद्धि में सत्व का प्रकाश हो जाने पर एक विशेष प्रजा का उद्भव होता है जो केवल सत्य को ही धारण करती है एवं सत्य का ही निश्चय करती है। बुद्धि के दो प्रकार के कार्य होते हैं-

 

1.ज्ञान को धारण करना

2.ज्ञान का निश्चय करना

 

बुद्धि के इस प्रकार विशेष प्रज्ञा से युक्त होने पर उसे ऋतंभरा प्रज्ञा के नाम से कहा जाता है। यह बुद्धि की सबसे उत्तम स्थिति है।

सत्य और ऋत ये ज्ञान के दो सात्विक विभाग कहे जा सकते हैं। सत्य ज्ञान वस्तु, व्यक्ति, गुण, परिस्थिति के अनुसार बदल सकता है अर्थात सापेक्ष हो सकता है  लेकिन ऋत ज्ञान निरपेक्ष होता है । शाश्वत एवं नियमबद्ध है। इसीलिए सृष्टि ऋत नियमों के आधार पर चलती है, क्योंकि यह न यो कभी बदलता है और न ही विपरीत होता है। यह त्रिकाल में सदैव सत्य ही रहता है।

 

जब साधक की बुद्धि में ऋतंभरा प्रज्ञा का आवेश होता है तो ऐसे योगी की बुद्धि में किसी भी प्रकार से विपरीत ज्ञान अथवा मिथ्या ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। ऋतंभरा प्रज्ञा के प्रसाद से वह सदा सर्वदा सत्य को ही धारण करता है और सत्य  ज्ञान का ही निश्चय करता है लेकिन ऐसा करने में योगी को कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता अपितु सहज रूप से शाश्वत ज्ञान ही अनुभव में आता है। ऋतंभरा प्रज्ञा से युक्त योगी को जीव जगत और जगदीश्वर से संबंधित अब तक के अनसुलझे रहस्यों का सहज एवं स्थाई समाधान प्राप्त हो जाता है।

 

इसी प्रज्ञा का अवलंबन लेकर वह अपनी आध्यात्मिक यात्रा को सहज रूप से आगे बढ़ाता है और दुःख क्या है? दुःख किसमें है? सुख क्या है ? और शाश्वत सुख अथवा आनंद की प्राप्ति किस प्रकार संभव होगी इसका ठीक ठीक निर्धारण करने में सक्षम होने लगता है। आध्यात्मिक यात्रा के लिए जो भी आवश्यक सहज उत्साह और बल की आवश्यकता होती है वह उत्साह, बल और आत्मविश्वास साधक को प्राप्त होने लग जाता है। सभी उहापोहो से मुक्त एवं निर्भ्रांत होकर एकमेव ब्रह्म की उपासना में दृढ़ संकल्पित होने लगता है।

 

कर्मयोग, ध्यानयोग एवं भक्तियोग, तीनों में से किसी एक अथवा समग्रता के साथ तीनों योगों में असक्त बुद्धि रखता हुआ, अभ्यास करता हुआ ध्यान एवं भक्ति पूर्वक कर्म करता हुआ स्वयं एवं समाज का उत्थान करता है। अंततःकैवल्य की ओर अपनी यात्रा को आगे बढ़ाता हुआ कृतकृत्य हो जाता है।

 

पूर्व के दो सूत्रों से यह स्पष्ट है कि ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्राप्ति के लिए निर्विचार समाप्ति में कुशलता की आवश्यकता होती है। अतः योग साधक को सूक्ष्म विषयों में अपनी रूचि के अनुसार समाधि या एकाग्रता का अभ्यास करना चाहिए। सूक्ष्म विषयों में जब एकाग्रता बनेगी तो साधक की बुद्धि भी शुद्ध होती चली जाएगी। राजसिक और तामसिक गुणों का प्रभाव कम होता चला जायेगा और सत्त्व की वृद्धि होती चली जायेगी। इस प्रकार सूक्ष्म विषयों पर एकाग्रता करने से बुद्धि में एक विशेष गुण उत्पन्न हो जाएगा जो स्थूल बुद्धि या विश्लेषण को समाप्त करता हुआ सूक्ष्मता से विश्लेषण करने के गुण को उत्पन्न करेगा।

 

ऋतंभरा प्रज्ञा को प्राप्त करने के लिए कुछ उपाय

 

1.निर्विचार समाप्ति का प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिए।

2.अपने भीतर उपस्थित दोषों के ऊपर सूक्ष्म विवेचन या विश्लेषण करना चाहिए एवं वे किस प्रकार विशेष परिस्थिति के प्राप्त होने पर उत्पन्न हो जाते हैं उसका भी सूक्ष्मता से विश्लेषण करना चाहिए एवं साथ के साथ दोषों को हटाने का प्रयत्न भी करते चले जाना चाहिए।

3.अपने आचरण, मनस्थिति एवं भाव स्थिति का सूक्ष्मता से अवलोकन करके देखना चाहिए कि किस प्रकार आपके भीतर इनका प्रवाह सात्विक से राजसिक या तामसिक होता है अथवा कब और कैसे आपकी स्थिति तामसिक, राजसिक से ऊपर उठते हुए सात्विक की ओर प्रवाहित हो रही है।

4.दोषों से पार पाने के लिए सबसे उत्तम उपाय है कि दृष्ट बनकर, द्वन्द्व को सहन करते हुए अपनी सात्विक स्थिति को बनाये रखना एवं दोष को किसी भी स्थिति में क्रिया रूप में नहीं नहीं उत्पन्न होने देना। इस प्रकार दोष निवारण के साथ साथ सूक्ष्म विषयों में मन की एकाग्रता बनने से बुद्धि भी निर्मल होकर ऋतम्भरा प्रज्ञा से युक्त होने लग जायेगी।

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 सूत्र:  ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ।।1.48।।

सूत्र: श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ।।1.49।।

 

बुद्धि उत्कृष्टता के सोपान चढ़ेगी

अध्यात्म प्रसाद पर जब आगे बढ़ेगी

ऋतंभरा प्रज्ञा से युक्त बुद्धि तब

दिखलाएगी साफ, स्पष्ट वह सब

जो कुछ जैसा स्वरूप है रखता

ऋतंभरा से वैसा अनुरूप परखता

योगी ज्ञान विज्ञान से युक्त हो जाता

समाधि समीपस्थ स्थिति को पाता

ऐसी प्रज्ञा विशेष कहलाती

क्योंकि विशेष ज्ञान का बोध कराती

महर्षि ने जो प्रमाण कहे हैं

उनमें से श्रवण और अनुमान कहें हैं

उनसे अलग ये प्रज्ञा ऋतंभरा

सामान्य बोध से जिसका बोध है गहरा

 

2 thoughts on “1.48”

  1. Jagvir Singh Rawat says:

    मुझे ऋतम्भरा प्रज्ञा का विवरण प्रभाव पूर्ण लगा । मैं विगत कई वर्षों से ध्यान योग की साधना कर रहा हुं तथा लेख के अनुसार मैं यथानुसार प्राप्त फल की पुष्टि करता हूं।

  2. Alok says:

    सत्य और ऋत ये ज्ञान के दो सात्विक विभाग कहे जा सकते हैं…. ऋतंभरा प्रज्ञा को भली भांति समझाया गया है। धन्यवाद।

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