उपरोक्त सूत्र में तत्र शब्द से ईश्वर को कहा गया है । महर्षि पतंजलि कहते हैं कि ईश्वर में सर्वज्ञता के बीज की निरतिशयता अर्थात पराकाष्ठा है | अतिशय का अर्थ होता है जो बढ़ता रहता है लेकिन महर्षि ने सूत्र में निरतिशय शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ होगा जक घटने और बढ़ने से रहित है अर्थात अपनी पराकाष्ठा में स्थित है, जिसमें ज्ञान का घटना और बढ़ना नहीं है। अतीत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में ईश्वर की सर्वज्ञता है | अतिशय सर्वज्ञता का बीच से अर्थ है कि ईश्वर से बढ़कर या उसके समान किसी में भी ज्ञान नहीं है |
अतिशय का अर्थ होता है जो बढ़ा हुआ है | इसलिए जब कोई व्यक्ति बढ़ा चढ़ा कर कोई बात करता है तो उसे कहा जाता है कि यह तो अतिश्योक्ति है अर्थात आपने बढ़ा चढ़ाकर यह बात बोली है | निरतिशय का अर्थ हुआ जो बढ़ता नहीं है या बढ़ाया नहीं जा सकता है और न ही न्यून किया जा सकता है | ऐसा ज्ञान तो अपनी स्वाभाविकता में परिपूर्ण है उसे निरतिशय ज्ञान कहा गया है |
ऐसा नहीं है कि ईश्वर केवल ज्ञान के विषय में सर्वज्ञ है, उसमें सब प्रकार के शुभ गुणों, स्वाभाविक गुणों की पराकाष्ठा है। सब प्रकार के ऐश्वर्यों की पराकाष्ठा का आधार भी ईश्वर ही है।
In previous Sutra ‘tatra’ word refers to Ishwar. Maharshi Patanjali says that the seed of omniscience in Ishwar is at the maximum grown level. Atishaya means ever growing but the word used here is nirtishaya which means beyond increase or decrease i.e. climax/maximum. At all times, whether past, future or present, God has always been omniscient which means that God has the maximum knowledge which cannot be surpassed.
Atishaya means which keeps growing. That is why it is called atishiyokti when somebody makes an exaggerated statement. Nirtishaya means which cannot be increased or decreased. Such knowledge is rife in its naturalness.
It does not mean that God is omniscient only about knowledge. He has all kinds of auspicious and natural instinctive virtues. God is the foundation of best kind of prosperities all around.
सूत्र: तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्
संपूर्ण ज्ञान विज्ञान का आधार वही है
हमारे ज्ञान का भी दातार वही है
सर्वज्ञ वही है, निर्लिप्त वही है
सर्वज्ञता के भाव से अभिषिक्त वही है
ज्ञान कभी न घटता बढ़ता
कोई आवरण कुछ नहीं ढकता
प्रकाश स्वरूप वह हृदय में बसता
सर्वज्ञ प्रभु एक रस है भासता
सम्पूर्ण योगदर्शन के सूत्रों का सहज भाषा में अनुवाद तथा प्रत्येक सूत्र का हिंदी में ऑडियो उपलब्ध करवाने हेतु जिस प्रकार का एकत्व अथक पुरषार्थ आपके द्वारा किया गया है “पूज्य श्री ” निश्चय उसके पीछे आपके ह्रद्वय में जनमानस के कल्याण का भाव है। कैवल्य/योग को जनसाधारण के लिए सर्वसुलभ करवाने हेतु आपकी अभीप्प्सा , त्याग , तप , पुरषार्थ , विवेक व वैराग्य को कोटि-कोटि प्रणाम। हम भी गिलहरी के समान अपने यथा ज्ञान व सामर्थ्य अनुसार आपके दूर दृष्टियुक्त पुरषार्थ को फैलाने में आहुति देने का प्रयास सर्वदा करते रहेंगे।