Chapter 1 : Samadhi Pada
|| 1.43 ||

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का


पदच्छेद: स्मृति , परिशुद्धौ , स्वरूप , शून्या , इव , अर्थ , मात्र , निर्भासा , निर्वितर्का ॥


शब्दार्थ / Word Meaning

Hindi

  • स्मृति - स्मृति (के)
  • परिशुद्धौ- शुद्ध अर्थात् आगम और अनुमान के शब्द और ज्ञान से रहित (हो जाने पर)
  • स्वरूप - अपने रूप (से)
  • शून्या - शून्य (हुई)
  • इव - जैसी (केवल ध्येय)
  • अर्थ - अर्थ
  • मात्र - मात्र के
  • निर्भासा - स्वरूप को प्रत्यक्ष कराने वाली (चित्त की स्थिति ही);
  • निर्वितर्का - निर्वितर्क समाधि है ।

English

  • smriti - memory
  • pari-shuddhau - upon purification
  • svaroopa-shoony - devoid of its own nature
  • Iva - as it were
  • artha - meaning
  • matra - only
  • nirbhasa - shine forth
  • nirvitarka - nirvitarka samadhi

सूत्रार्थ / Sutra Meaning

Hindi: स्मृति के शुद्ध अर्थात् आगम और अनुमान के शब्द और ज्ञान से रहित हो जाने पर अपने रूप से शून्य हुई जैसी केवल ध्येय अर्थ मात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष कराने वाली चित्त की स्थिति ही; निर्वितर्क समाधि है ।

Sanskrit: 

English: When the mind achieves identity with a gross object of concentration, devoid of the distinction of name, quality and knowledge, so that the object alone shining forth, this is called nirvitarka samadhi.

French: Lorsque l'esprit atteint l'identité avec un objet de concentration grossier, dépourvu de distinction de nom, de qualité et de connaissance, de sorte que l'objet seul émerge, on l'appelle nirvitarka samadhi.

German: Der Zustand, in dem das Gedächtnis völlig gereinigt ist, so dass die Wirkung des Citta ( das meinende Selbst) kaum spürbar ist und allein das Objekt der Betrachtung leuchtet, heißt Nirvitarkā-Samāpatti.

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Yog Sutra 1.43
Explanation 1.43
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Explanation/Sutr Vyakhya

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  • Yog Kavya

स्मृति के शुद्ध होने जाने पर, स्वरुप से शून्य हुई जैसी चित्त की वृत्ति जब केवल अर्थ मात्र को प्रकाशित करने लग जाती है तो ऐसी चित्त-वृत्ति को निर्वितर्का समापत्ति कहलाती है|

आईये इस सूत्र को थोडा विस्तार से समझते हैं | महर्षि पतंजलि ने मनुष्य कि जितनी भी आन्तरिक संरचना है उसका गहन अध्ययन किया है और उसे भलीभांति समझकर ही ये गहन एवं जीवनोपयोगी सूत्र हम सबको दिए हैं, जिनको ठीक ठीक समझकर हम भी योग मार्ग पर निर्विरोध आगे बढ़ सकते हैं|

सम्प्रज्ञात समाधि के चार प्रकारों में से निर्वितर्का समापत्ति एक प्रकार है, यह किस प्रकार सिद्ध होती है और यह समापत्ति किस स्वरुप वाली होती है यही सूत्र में महर्षि ने बताया है|

जब साधक एकाग्रता की साधना कर चुका होता है अर्थात् मन को शुद्ध, निर्मल एवं विमल कर लेता है तो धीरे धीरे वह समाधि के उत्तरोत्तर सोपानों को भी प्राप्त करता जाता है | इस जीवन में हम जो कुछ ५ ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव करते हैं और जो कुछ ५ कर्मेन्द्रियों से कर्म सम्पादित करते हैं उनकी छाप या उनका प्रतिफलन हमारे मस्तिष्क में स्मृति के रूप में सुरक्षित होता रहता है | सही आलंबन एवं उचित परिवेश, परिस्थियाँ मिलते ही स्मृति कोष में से सम्बंधित विचार हमारे सामने उपस्थित हो जाता है | जो भी योग मार्ग पर आगे नहीं बढ़ता है उसके लिए यह क्रम जीवन भर अनवरत चलता रहता है, लेकिन योग मार्ग पर कुशलता से आगे बढ़ रहे योगियों के लिए एक ऐसी स्थिति भी निर्मित होती है जब उसकी स्मृति शुद्ध होने लग जाती है | स्मृति शुद्ध होने का यह अर्थ नहीं है कि पहले स्मृति अशुद्ध थी अब शुद्ध हुई है | स्मृति शुद्ध का अर्थ है कि स्मृति उद्बुद्ध होने के जो कारणभूत हैं उनके हट जाने से जब चित्त वृत्ति केवल ग्राह्य वस्तु केवल अर्थ का ही भास कराती है तो उसे स्मृति का शुद्ध होना कहते हैं|

जिसको अभी तक निर्वितर्का समापत्ति अनुभव में नहीं आई है उसके लिए तो इसकी कल्पना करना भी कठिन है लेकिन समझ के स्तर पर थोड़े से प्रयास से निर्वितर्का समापत्ति की स्थिति को मानसिक रूप से अनुभव किया जा सकता है न कि आत्मिक रूप से | इस संसार में जो कुछ है उसके सम्पूर्ण अस्तित्त्व की अभिव्यक्ति के लिए तीन सत्ताओं का होना अनिवार्य है|

शब्द- उसका कोई नाम होना चाहिये|

  • अर्थ- जिसको शब्द से कहा जा रहा है उसका कोई अर्थ होना चाहिए|
  • ज्ञान-जिसको शब्द से कहा जा रहा है और जिसका अर्थ हो, उसका वैसा ही ज्ञान अनुभव में आना चाहिए|

 

यदि किसी शब्द का कोई अर्थ न हो तो उसकी सत्ता को अनुभव नहीं किया जा सकता है | ऐसा भी हो सकता है कि किसी शब्द कोई भ्रामक अर्थ निर्मित हो रहा हो पर उसे ज्ञान में लाने का प्रयत्न निश्चित ही विफल हो जायेगा | जैसे कोई कहे आकाश का फूल | आकाश का फूल सुनने से ऐसा लगता है जैसे कोई फूल है लेकिन उसका यथार्त ज्ञान असम्भव है क्योंकि आकाश के फूल जैसी कोई सत्ता नहीं होती है|

जिसको आज मोबाइल प्रत्येक के लिए एक सामान्य सी बात हो गई है, उसके आकार, प्रकार, एवं कार्य करने की पद्धति से कोई भी आसानी से मोबाइल को अपनी स्मृति में बनाये रख सकता है | अब जब हम आंख बंद कर मोबाइल को देखने का प्रयास करें तो हमें एक एक उपकरण दिखाई देने लग जायेगा, उसकी उपयोगिता, उसके सञ्चालन की विधि सबकुछ हमारी आँखों से सम्मुख होगा | लेकिन जब पहली पहली बार मोबाइल आया होगा तो उसके आकार, उसके कार्य करने की पद्धति से पहली बार हम परिचित हो रहे होते हैं, यही परिचय धीरे धीरे स्मृति में परिवर्तित होने लग जाता है | धीरे धीरे छोटी सी छोटी सूचना भी मोबाइल की स्मृति बनाने में सहयोग करती है | कहने का तात्पर्य है “कि किसी भी विचार, वस्तु एवं व्यक्ति के बारे में स्मृति बनने में जो कुछ शब्द-दृश्य-स्पर्श-गंध एवं रसना सहयोगी बनती है जब सम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था में इन कारणों का अभाव हो जाता है और केवल ग्राह्य अर्थात् जिस पर मन को एकाग्र किया गया है, उसका केवल अर्थ मात्र ही अनुभव में आता हो तो इसी भाव दशा या स्थिति को निर्वितर्का समापत्ति कहते हैं”|

ऐसी स्थिति में शब्द और उसका ज्ञान का भी भास नहीं होता बस केवल अर्थ भासता है| इस स्थिति को मानसिक स्तर पर अनुमान करने में भी साधक को बड़ी कठिनाई होती है और इसके विषय में विचार करना मात्र ही बड़ा रहस्यमयी प्रतीत होता है | मोबाइल के उदहारण से इसे समझने का प्रयास करते हैं- मोबाइल किसे कहते हैं यह आपको भलीभांति पता है, और इसका क्या अर्थ होता है यह भी आपको पता है, इसका ज्ञान भी आपको अच्छे से ही है, लेकिन निर्वितर्का समापत्ति की स्थिति में आपको केवल यह पता चलेगा कि मोबाइल क्या है ! न तो आपको मोबाइल का आकार ही अनुभव में आएगा न ही उसका आपको ज्ञान होगा केवल मोबाइल है यह अर्थ ही भासता रहेगा | मोबाइल का जो कुछ स्वरुप है उससे भी साधक का चित्त शून्य जैसा हो जायेगा | यह एक विलक्षण स्थिति है और निरंतर योग के अभ्यास से ही यह स्थिति सिद्ध हो सकती है|

coming soon..
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सूत्र: स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ।।1.43।।

सूत्र: एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ।।1.44।।

सूत्र: सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम् ।।1.45।।

 

स्मृति के अच्छे से शुद्ध होने पर

चित्त स्वरूप शून्य सा होने पर

केवल ध्येय वस्तु को जनाती है

यह स्थिति निर्वितर्का कहलाती है

तब वस्तु का मात्र अर्थ बोध है होता

बीच में कुछ अवरोध नहीं होता

सविचार और निर्विचार ये दो

महर्षि न कहे हैं भेद ये जो

सूक्ष्म विषयों का आलंबन ये लेते

चित्त को शांत प्रशांत कर देते

सूक्ष्म विषयों की पहुंच कहां तक?

मूल प्रकृति शुरू होती, वहां तक

 

6 thoughts on “1.43”

  1. hgf says:

    Thanks for sharing your thoughts. I truly appreciate
    your efforts and I will be waiting for your further post thanks
    once again.

  2. अन्तिम आर्य योगाभ्यासी says:

    Great effort from great soul. We always be thankful to you for your hard work on art of living & dying.

  3. Ganesha C S says:

    Waiting for commenteries from sutra no 44 Samadhipada

    1. admin says:

      It’s done Ganesh ji.. thanks for your concern and please share with others

  4. Ganesha C S says:

    it’s really helpful to understand, please continue

  5. Jitendra Bhatt says:

    Very nice knowledgeable information about Yoga

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